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________________ [ 176 हे भगवन् ! शून्यवाद में पर्यवसित होनेवाले स्थूलत्व, अणुत्व पादिरूप में वस्तु की सत्ता के निषेध आपके कथञ्चित् अभ्युपगम की नीति से निरस्त होने के कारण आपके स्याद्वादशासन को बाधा पहुँचाने में असमर्थ हैं। जैनदर्शन में जगत् के प्रत्येक पदार्थ को अनन्त धर्मों का अभिन्न स्थान माना जाता है और सप्तभङ्गी नयवाक्य से प्रत्येक धर्म का बोध कराया जाता है तथा वाक्य के प्रत्येक भंग की रचना 'स्यात्' शब्द से की जाती है / उदाहरणार्थ आत्मा के अनन्त धर्मों में से अस्तित्व धर्म का बोध कराने के लिये सप्तभङ्गी न्याय का प्रयोग निम्न प्रकार से किया जा सकता है (1) स्यादस्ति-कथञ्चित् है। (2) स्यान्नास्ति-कथञ्चित् नहीं है। (3) स्यादस्ति च नास्ति च-कथचित् है और कथञ्चित् नहीं भी (4) स्यादवक्तव्यः-कथञ्चित् अवाच्य है। (5) स्यादस्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। (6) स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् नहीं है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। (7) स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च-कथञ्चित् है, कथञ्चित् नहीं है तथा कथञ्चित् अवाच्य है। वस्तु की मान्यता के सम्बन्ध में जैनदर्शन की इस दृष्टि को ही 'स्याद्वाद' शब्द से व्यवहृत किया है / इसके विरुद्ध बौद्धों का यह कथन है कि स्याद्वाद का यह शासन संगत नहीं है क्योंकि यह अनन्तधर्मात्मक वस्तु के अस्तित्व पर भी प्रतिष्ठित हो सकता है और वस्तु का अस्तित्व किसी भी रूप में सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि बस्तु का अस्तित्व यदि माना जाएगा तो उसे स्थूल, अणु, भिन्न, अभिन्न,
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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