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________________ 178 ] पदार्थ अनेकान्तरूप है, पदार्थ मात्र की अनेकान्तरूपता की यह सिद्धि अनेकान्तदर्शी प्राचार्यों का वह गम्भीर सिंहनाद है जो एकान्तसिद्धान्त के दुर्दान्त वादि-गजेन्द्रों के मद को चूर्ण-विचूर्ण कर देता है / / 58 // * तद्देशतेतरपदेऽपि समा दिगेषा, चित्रेतरत्व-विषयेऽप्ययमेव पन्थाः। द्रव्यकतावदविगीततया प्रतीतेः, क्षेत्रकतापि न च विभ्रमभाजनं स्यात् / / 56 // एक वस्तु में रक्तत्व तथा अरक्तत्व के समावेश के सम्बन्ध में जो पद्धति बताई गई है वही तद्देशत्व तथा अतद्देशत्व एवं चित्रत्व तथा चित्रेतरत्व के एकत्र समावेश के सम्बन्ध में भी ग्रहण करनी चाहिए। अर्थात् इन विरोधी धर्मों के समावेश में कथञ्चिद् भिन्नता होते हुए भी वस्तु की एकता अक्षुण्ण समझी जानी चाहिये। इसी प्रकार जैसे पर्यायों के भेद से द्रव्य में भेद होने पर भी उसकी एकता भ्रम की वस्तु नहीं मानी जाती है क्योंकि उसमें होनेवाली एकता की प्रतीति अबाधित रहती है, वैसे ही जिस क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक द्रव्य एकत्र ही एक-दूसरे से सम्बद्ध होते हैं उस क्षेत्र की एकता भी भ्रम की वस्तु नहीं मानी जा सकती, क्योंकि संसर्गी द्रव्यों के भेद से भिन्नता रहने पर भी उसमें रहनेवाली एकता की प्रतीति अबाधित रहती है / / 56 // स्थूलाणुभेदवदभिन्नपरानपेक्षसव्यापकेतर-निषेधक-शून्यवादाः। एतेन तेऽभ्युपगमेन हताः कथञ्चित्, स्वच्छासनं न खलु बाधितुमुत्सहन्ते // 6 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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