________________ [ 223 तद्वद्गुरुः . सुमुनये चरणानुयोग, शेषत्रयं गुणतयेत्यधिका क्रियेव // 63 // "ज्ञान की अपेक्षा चारित्र-क्रिया अभ्यहित है' इसकी पुष्टि करते हुए श्री उपाध्यायजी का कथन है कि___ जिस प्रकार राजा अपने प्रियपुत्र को चाँदी, सोने और रत्न की खाने न देकर लोहे की ही खान देता है और शेष तीन पुत्रों को चाँदी आदि की खाने देता है, उसी प्रकार गुरु अपने योग्य शिष्य को गणित, धर्म-कथा और द्रव्य का उपदेश न देकर प्रधानरूप से चारित्र का ही स्पदेश देता है, और गणित आदि का उपदेश अन्य शिष्यों को देता है तथा यदि उसे देता भी है तो गौणरूप से ही देता है। जिस प्रकार उक्त वितरणव्यवस्था में राजा का यह प्राशय होता है कि चाँदी आदि की खानों की रक्षा के लिये अपेक्षित शस्त्रों के निर्माणार्थ लोहा प्राप्त करने के लिये चाँदी आदि की खानों के स्वामियों को लोहे की खान के स्वामी को चाँदी आदि देना होगा और इस प्रकार लोहे की खानवाले पुत्र को चांदी, सोने और रत्न की प्राप्ति निरन्तर होती रहेगी। ठीक उसी प्रकार उक्त प्रकार से उपदेश देने वाले गुरु का का भी यह अभिप्राय होता हैं कि गणित, धर्मकथा और द्रव्य का उपदेश प्राप्त किये हुए शिष्य दीक्षा का उचित काल बताकर, वैराग्यकारी कथानों का प्रवचन कर तथा तत्त्वविवेचन से सम्यक्त्व का शोधन कर चारित्र का उपदेश धारण करनेवाले शिष्य का कार्य सम्पादन करते रहेंगे, और वह अपने चारित्र के बल से अपनी साधना में सतत आगे बढ़ता जाएगा। गुरु के इस विवेकपूर्ण कार्य से यह स्पष्ट है कि साधना में ज्ञान का सामान्य उपयोग है और चारित्र का प्रत्यंधिक उपयोग है। अतः चारित्रक्रिया ज्ञान से निर्विवादरूप से प्रधान है // 3 //