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________________ 214 ] द्वारीभवन्त्यपि च सा न कथञ्चिदुच्चनिं प्रधानमिति सङ्गरभङ्गहेतुः // 82 // : मोक्षरूप फल के प्रति क्रिया का व्यभिचार बनाकर उसकी अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता प्रदर्शित करते हुए श्री उपाध्याय जी का कहना है कि क्या विद्वानों को यह ज्ञात नहीं है कि भरत, प्रसन्नचन्द्र आदि पुरुषों में मोक्षप्राप्ति के प्रति क्रिया में अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार हैं ? अर्थात् क्रियावान् होने पर भी प्रसन्नचन्द्र को मुक्ति का लाभ नहीं हुआ और क्रियाहीन होने पर भी भरत को मुक्ति प्राप्त हो गई। ____ यदि यह कहा जाए कि ज्ञान भी तो सीधा फल-सिद्धि का साधक न होकर क्रिया के द्वारा ही उसका सम्पादक होता है, तो फिर ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे हो सकता है ? तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्रिया यद्यपि कथञ्चित् ज्ञान का द्वार है तथापि वह 'ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है' इस उच्च प्रतिज्ञा का व्याघात नहीं कर सकती। कहने का प्राशय यह है कि फलसिद्धि में ज्ञान के क्रियासापेक्ष होने से उसकी निरपेक्षता की हानि हो सकती है पर उसकी प्रधानता की हानि नहीं हो सकती, क्योंकि प्रधानता की हानि तब होती है जब उसके बिना केवल क्रिया से ही फल की प्राप्ति होती, पर यह बात तो है नहीं, हाँ, क्रियासापेक्ष होने से उसे फलसिद्धि का निरपेक्ष कारण नहीं माना जा सकता, पर इससे कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि निरपेक्ष-कारणता का समर्थन करना अभीष्ट नहीं है // 82 / / सम्यक्त्वमप्यनवगाढमृते किलेतदभ्यासतस्तु समयस्य सुधावगाढम् /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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