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________________ [ 215 ज्ञानं हि शोधकममुष्य यथाजनं स्या दक्ष्णोर्यथा च पयसः कतकस्य चूर्णम् // 83 // ज्ञान के बिना सम्यक्त्व श्रद्धा की परिपुष्टि नहीं होती। अज्ञानी की श्रद्धा बड़ी दुर्बल होती है जो विपरीत तर्क से अनायास ही झकझोर उठती है, किन्तु सिद्धान्त के अभ्यास से अभ्यस्त सिद्धान्तज्ञान से इसकी पूर्ण पूष्टि हो जाती है, क्योंकि ज्ञान से सम्यक्त्त्व का शोधन ठीक उसी प्रकार सम्पन्न होता है जिस प्रकार अञ्जन से नेत्र का और कतक के चूर्ण से जल का शोधन होता है, अतः सम्यक्त्व का शोधक होने से ज्ञान उसकी अपेक्षा प्रधान है // 83 // प्रासक्तिवांश्च चरणे करणेऽपि नित्यं, न स्वात्मशासनविभक्ति-विशारदो यः। तत्सारशून्यहृदयः स बुधैरभारिण, ज्ञानं तदेकमभिनन्द्यमतः किमन्यः // 84 // जो मनुष्य चरण-नित्यकर्म और करण-नैमित्तिक कर्म में निरन्तर आसक्त रहता है किन्तु स्वशासन-जैन शासन और अन्य जैनेतर शासन के. पार्थक्य को पूर्णतया नहीं जानता, विद्वानों के कथनानुसार उनके हृदय में करण और चरण के ज्ञानदर्शनात्मक फल का उदय नहीं होता। इसलिए एकमात्र ज्ञान ही अभिनन्दनीय है, और अन्य समस्त साधन ज्ञान के समक्ष नगण्य हैं // 84 // न श्रेरिणकः किल बभूव बहुश्रुद्धिः , प्रज्ञप्तिभाग न न च वाचकनामधेयः / सम्यक्त्वतः स तु भविष्यति तीर्थनाथः, सम्यक्त्वमेव तदिहावगमात प्रधानम् // 85 // .
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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