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________________ 216] श्रेणिक (मगध का एक राजा) बहुश्रुत नहीं था, उसे प्रज्ञप्ति भी नहीं प्राप्त थी, वह वाचक की उपाधि से भूषित भी नहीं था। इस प्रकार ज्ञानी होने का कोई चिह्न उसके पास नहीं था, किन्तु उसके पास सम्यक्त्वश्रद्धा का बल था, जिसके कारण वह भविष्य में आगामी उत्सर्पिणी काल में तीर्थङ्कर होने वाला है, तो फिर ज्ञान न होने पर भी केवल सम्यक्त्व के बल से जब तीर्थङ्कर के पवित्रतम सर्वोच्च पद पर पहुंचा जा सकता है तो स्पष्ट है कि सम्यक्त्व ज्ञान की अपेक्षा अतिश्रेष्ठ है // 85 // भ्रष्टेन संयमपदादवलम्बनीयं, सम्यक्त्वमेव दृढमत्र कृतप्रसङ्गाः / चारित्रलिङ्गवियुजोऽपि शिवं व्रजन्ति, तजितास्तु न कदाचिदिति प्रसिद्धः / / 86 // - संयम के पद से चारित्र के मार्ग से च्युत होने पर मनुष्य को दृढ़ता के साथ सम्यक्त्व का ही अवलम्बन करना चाहिये / सम्यक्त्व को छोड़ किसी अन्य साधन के पीछे नहीं दौड़ना चाहिये, क्योंकि यह बात प्रसिद्ध है कि चारित्र का चिह्न भी न रखनेवाले मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं पर सम्यक्त्व-श्रद्धा रहित मनुष्य कभी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते // 86 // ज्ञानी सुदृष्टिरपि कोऽपि तपो व्यपोह्य, दुष्कर्ममर्मदलने न कदापि शक्तः। एतन्निकाचितमपि प्रणिहन्ति कर्म- / त्यहितं भवति निर्वृतिसाधनेषु // 7 // ज्ञान और सम्यग्दर्शन श्रद्धा से सम्पन्न होने पर भी तप-सत्कर्म
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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