________________ [ 213 न्तरसाध्य भोग की अपेक्षा उसे नहीं होती, अतः विपाकानुभवस्वरूप भोग कृत्स्नकर्म के क्षय का पूर्ववर्ती कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता है। __निष्कर्ष यह है कि जब मोक्षार्थी साधक को सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र्य के अतिशय की प्राप्ति हो जाती है तब जन्मान्तरसाध्य विपाकानुभव के बिना ही उन्हीं दोनों के समस्त सञ्चित कर्मों का नाश कर वह पूर्ण मुक्ति को हस्तगत कर लेता है // 80 // ज्ञानं प्रधानमिह न क्रियया फलाप्तिः, शुक्तावुदीक्ष्यत इयं रजतभ्रमाद् यत् / प्राकर्षणादि कुरुते किल मन्त्रबोधो, हीरणेव दर्शयति तत्र न च क्रियास्यम् // 1 // 'नय दष्टि से 'क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता है' यह स्पष्ट करते हुए स्तोत्रकार का कथन है कि___ ज्ञान क्रिया की, अपेक्षा प्रधान होता है अर्थात् फलप्राप्ति का कारण ज्ञान होता है क्रिया नहीं होती, क्योंकि क्रिया होने पर भी फल की प्राप्ति नहीं देखी जाती, जैसे सीपी में चाँदी का भ्रम होने पर चांदी को प्राप्त करने की क्रिया होती है पर उस क्रिया से चाँदी की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार जहाँ क्रिया लज्जित-सी अपना मुख छिपाये रहती है अर्थात् जहाँ क्रिया उपस्थित नहीं रहती, वहाँ भी मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि फलों की सिद्धि होती है। अतः क्रिया में फलप्राप्ति का अन्वय और व्यतिरेक दोनों प्रकार के व्यभिचार होने से क्रिया को फलप्राप्ति का कारण नहीं माना जा सकता // 81 // पश्यन्ति किं न कृतिनो भरतप्रसन्नचन्द्रादिषुभयविधं व्यभिचारदोषम् /