SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 21 करते हैं। आप यादवों की जरा-वृद्धावस्था के विनाशक हैं, मैं आपका दास हूँ, आप अपनी दृष्टि से इस दास को देखें अथवा आप इस सेवक पर कृपादृष्टि करें / / 20 / / प्रत्यक्षलक्षामिव कल्पवल्ली, तवापि मूत्ति किल यो न मेने / स्वबोधिबीजस्य जिनेश ! तेन, न्यधायि कण्ठे कठिनः कुठारः॥ 21 // हे जिनेश्वर ! जिसने प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली कल्पलता के समान आपकी मूर्ति को भी नहीं माना, उसने अपने ज्ञानरूपी वृक्ष के कण्ठ पर कठोर कुल्हाड़ा चला दिया है / / 21 // नयानविज्ञाय जिनेश ! किञ्चिदभ्यस्य येषां तव वागबुभुत्सा। द्रुतं रुताभ्यासकृतां हि तेषां, पिकस्वरेच्छा किल वायसानाम् // 22 // हे जिनेश ! नयों का ज्ञान किये बिना कुछ अभ्यास करके जो आप की वाणी को जानने की इच्छा रखते हैं, उनकी वह इच्छा कुछ समय में अभ्यास करके कोयल के स्वरों के समान मधुर स्वर के इच्छुक कौनों के समान है। अर्थात् जैसे कौया तात्कालिक कोयल के स्वरों का अभ्यास करके अपने आपको कोयल के समान मधुर स्वरवाला घोषित करने की चेष्टा करता है किन्तु वह जेसे चिरस्थायी नहीं होता वैसे ही उसका ज्ञान अस्थायी होता है / / 22 // एकत्र वस्तुन्वभिदोर्णशेषं, कुपक्षिरणां यः किल पक्षपातः / स एव तीर्थेश ! परानुयोगे, मतिच्छिदायाः परमं निदानम् // 23 // .. हे तीर्थेश ! एक पदार्थ में शेष अन्य पदार्थों को सर्वतोभावेन विदीर्ण करनेवाला कुपक्षियों का जो पक्षपात है, वही पक्षपात परानुयोग-अन्यप्रश्न में बुद्धिभेद का परम कारण है // 23 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy