SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 22 ] भिन्दन्ति तत्त्वानि भिदाप्रतीति, निदानमासाद्य कुवादिनो ये। .. संख्यामनासाद्य विहाय भूमि, विहायसि स्थातुममी धृताशाः // 24 // हे जिनेश्वर ! जो कुवादी लोग भेदप्रतीतिवाले कारण को लेकर तत्त्वों-वास्तविकताओं का भेदन करते हैं, वे संख्या-बुद्धि, विचार, अथवा तत्त्वज्ञता को न पाकर ऐसे लगते हैं मानो पृथ्वी को छोड़कर आकाश में रहने की आशा लगाये हों / / 24 // येऽपि प्रकामं प्रतिजानतेऽज्ञा, जगज्जनकान्तत एकमेव।.. जारं च सत्यं पितरं च तेऽपि, समानबुद्ध्यैव समाश्रयन्तु // 25 / / हे जिनेश्वर ! जो भी अविवेकी एकान्तरूप से एक ही जगत् को स्वेच्छानुसार अंगीकार करते हैं, वे जार और सच्चे पिता को भी समान बुद्धि से ही देखें, अर्थात् वास्तविक तत्त्व-ज्ञान से सून्य हैं // 25 / / अभिन्नभिन्नं तु नयैरशेषैरदीदृशः साधु तथा पदार्थम् / दोषाख्यया नाथ ! यथाश्रयन्ते, त्वद्वेषिरणो वाततयोद्विषन्तः (?) 26 / / हे नाथ ! आपने समस्त नैगमादि-नयों द्वारा अभिन्न और भिन्न पदार्थ को अच्छी तरह दिखला दिया कि जिसके कारण दोष को आप के पास रहने का स्थान नहीं मिला तब वह आपके द्वेषी लोगों के पास जाकर रहने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि वे लोग दोषनामक वातता-वातव्याधि से विशेषरूपेण दूषित होकर (सान्निपातिक रोगी की तरह) पीडित हो रहे हैं // 26 // पदार्थगान् पर्यनुयोगयोग्यान्, सप्तापि भङ्गान् विभनक्ति भाषा। तथा तवाधीश ! यथा कथायां, शङ्का-समाधानमर लभन्ते // 27 // हे स्वामिन् ! आपकी वाणी पदार्थगत प्रश्न के उत्तर देने अथवा
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy