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________________ [ 23 समाधान करने में समर्थ सातों भङ्गों को इस प्रकार विभक्त करती है कि जिससे दूसरे लोग आपकी कथा-व्याख्यान में शङ्का का समाधान शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं // 27 // जिह्वासहस्र जिनराज ! युष्मद्गुणान्न संख्यातुमलं यदासीत् / सहस्रजिह्वोऽपि ततः स्वनाम्ना, द्विजिह्व इत्येव जनैः प्रतीतः // 28 // हे जिनेश्वर ! हजार जिह्वा होते हुए भी शेषनाग आपके गुणों की गणना में समर्थ नहीं हुअा, यही कारण है कि उसका ‘सहस्रजिह्व' ऐसा नाम होते हुए भी लोग उसे 'द्विजिह्व'-दो जीभ वाला ही मानते-कहते हैं // 28 // जङ्घालभावं कलयन्नशेषं, नभो जिनाक्रामति यः क्रमाभ्याम् / प्रशासनः सोऽस्य पदं निदध्याद्, वक्तुं विशेषं तव सर्ववाचाम् // 26 // हे जिन ? आपकी समस्त वाणी की विशिष्टता को कहने का साहस वहीं उच्छं खल व्यक्ति कर सकता है, जो कि तेजी से दौड़ता हया अपने दोनों चरणों से पूरे आकाश को आक्रान्त-उल्लंघन कर सके अर्थात् जैसे यह कार्य असम्भव है वैसे ही आपकी वाणी का वर्णन भी असम्भव है / / 26 / / / प्रणम्रदेवेन्द्रशिरःकिरीटरत्नातिद्योतितदिगविभागः / अस्मन्मनोवाञ्छितपूरणायां कल्पद्रुकल्पः कुशलाय भूयाः // 30 // प्रणाम करनेवाले देवेन्द्र के मस्तक पर रखे हुए मुकुट के रत्नों की कान्ति से दिशाओं के विशिष्ट भागों को प्रकाशित करने वाले तथा हमारी मनःकामनाओं की पूर्ति के लिए कल्पवृक्ष ऐसे भगवान् जिनेश्वर हमारे कल्याण के लिये हों // 30 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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