SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24] हितार्थिना सम्प्रति सम्प्रतीतः, संस्तूयसे यच्छिवशर्मदाने। .. तेनैव तीर्थेश ! भवे भवेऽस्तु, भवत्पदाम्भोरुहभृङ्गभूयम् // 31 // हे तीर्थङ्कर ! आप मोक्षसुख देने में यहाँ चिरप्रसिद्ध हैं अतः हिताभिलाषी जन आपकी स्तुति करते हैं, और यही कारण है कि (मैं भी मोक्षसुख की प्राप्ति के लिये कामना करता हूँ कि मेरा मन) प्रत्येक जन्म में आपके चरण-कमलों के लिये भँवरा बना रहे / / 31 // . (आर्या छन्द) इत्थं श्रीशङ्केश्वर-पार्श्वनाथः प्रणतलोकहितदाता। स्तुतिपन्थानं नीतो यशोविजयसम्पदं तनुताम् // 32 // इस प्रकार प्रणति करनेवाले लोगों का हित करनेवाले श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की मैंने स्तुति की है अतः वह मुझे यश, विजय और सम्पत्ति प्रदान करे। (यहाँ यशोविजय को सम्पत्ति प्रदान करे / इस कथन से श्री उपाध्याय जी ने अपना नाम भी सूचित कर दिया है) // 32 // अध्ययनाध्यापनयुग-ग्रन्थकृतिप्रभृतिसर्वकार्येषु / श्रीशळेश्वरमण्डन !, भूया हस्तावलम्बी मे // 33 // हे शंखेश्वरमण्डन अर्थात् हे पार्श्वजिनेश्वर ! (मेरी यही प्रार्थना है कि आप) मेरे अध्ययन, अध्यापन और ग्रन्थ-निर्माणादि सब कार्यों में आप सहायक बनें / / 33 // -: 0 : 1. संस्तुतिपथं हि नीतः' इति पाठन भवितव्यम् / 2. पूर्वार्धे छन्दोभङ्गदोषः स च 'नाथो नतलोक' इति पाठेन समाधेयः /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy