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________________ 254] दीवबन्दरनगरवर्णनपूर्वकं-विज्ञप्तियोजनात्मको द्वितीयो भागः] . . [दीव-बन्दर नगरवर्णन सहित विज्ञप्तियोजनात्मक दूसरा भाग] (अनुष्टुप् छन्द) चिरकालगुरूपान्ते परिशिक्षितलक्षणः। उच्च?षादिवाम्भोधिलक्ष्यते घर्घरस्वरः // 1 // नगर-वर्णन [जिस दीव बन्दरगाह में] समुद्र ऐसा लगता है कि मानो चिरकाल से गुरुवर [गच्छाधिपति पूज्य आचार्य श्रीविजयप्रभसूरिजी) के निकट रहकर अध्ययन के लक्षणों [उच्चैरध्ययनम्, आदि] को वह सीख चुका हो और उसी शिक्षण के अनुसार अहर्निश अध्ययन में तत्पर रहते हुए शिष्य के समान ऊँचे स्वर से पढ़ने के कारण घर्घर स्वरवाला बन गया हो / / 1 / / प्रसह्य जगृहुर्देवा रत्नान्यब्धेरसौ ततः। तद्भिक्षां याचते यत्र विततोमिकरः किमु // 2 // अथवा वह समुद्र--'देवतानों ने बलपूर्वक मेरे रत्नों को ग्रहण कर लिया है. उन्हें मुझे वापस दिला दीजिये [ऐसी भावना से गुरुदेव के समक्ष] अपने तरंगरूपी हाथों को फैलाकर भीख मांग रहा है क्या ? // 2 // दृष्ट्वा क्षुभ्यति यत्राब्धिर्घटप्रतिभटस्तनीः / शङ्कमान इव स्वस्य घटोदुभवपराभवम् // 3 // जहाँ [दीव बन्दर में] समुद्र वहाँ की रहनेवाली घट के समान विशाल स्तनोंवाली सुन्दरियों को देखकर घट से उत्पन्न अगस्त्य मुनि
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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