________________ 114 ] पापाणुभिः किं घटितः पयोदश्यामः फरणीन्द्रस्तव नाममन्त्रात् / भृशं विशङ्क व्रजतां समीपे, न भीतिलेशं तनुते नराणाम् // 101 // ___ हे जिनेश्वर ! चमकते हुए फरणों की विशिष्ट रचना से भयङ्कर शरीरवाला, फुफकार की अधिकता से विष को उगलनेवाला, क्रूर यमराज की दोनों दाढ़ों के समान अपनी दोनों जिह्वानों को क्रोध से . चाटनेवाला, मानो पापों के परमाणुओं से बना हा हो ऐसा मेघ के. समान काले वर्णवाला सर्पराज भी आपके नाम-स्मरण के फल-स्वरूप निर्भय होकर विचरण करते हुए मनुष्यों के आगे तनिक भी भय उत्पन्न नहीं कर पाता // 100-101 // . भटासिभिन्नद्विपकुम्भनिर्यन्मुक्ताफलस्तारकिताभ्रदेशे / धनुविमुक्तैः शरकाण्डवृन्दैः, प्रदर्शिताकाण्डतडिद्विलासे // 102 / / रणाङ्गणे धीरमृगारिनादः, पलायमानाखिलभीरुलोके / जयं लभन्ते मनुजास्त्वदीयपदाब्जसेवाप्रथितप्रसादाः॥१०३॥ हे स्वामिन् ! योद्धाओं की तलवारों से कटे हुए हाथियों के गण्डस्थलों से निकलती हुई गजमुक्ताओं द्वारा आकाश को तारकित बनानेवाले, धनुषों से छोड़े गये बाणों के समूह से असमय में ही बिजली की चमक दिखानेवाले, सिंह के समान गम्भीर शब्दों से समस्त भीरुजनों को भगानेवाले लोग युद्धभूमि में आपके चरण-कमलों की सेवा से पूर्ण कृपा को प्राप्त कर जय को प्राप्त करते हैं // 102-103 / / उत्तालभूयः पवमानवेगादुल्लोलकल्लोलसहस्रभीष्मे। . समुच्छलत्कच्छपनाचक्रसट्टनाभङ्गुर-यानपात्रे // 104 // पतन्महाशैलशिलारवेण, गलत्प्रमीलीकृतपद्मनामे। . श्रियं लभन्ते भवतः प्रभावात्, सांयात्रिका वीतभियः पयोधौ // 105 //