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________________ [ 115 हे प्रभो ! तूफानी वायु के वेग से उछलती हुई हजारों तरंगों से भयङ्कर, पानी में दौड़ते हुए कछुए, मगर आदि के समूह की टकराहट से छिन्न-भिन्न जहाजवाले, गिरते हए महापर्वतों की शिला के शब्द से समुद्र में सोये हुए विष्णु को जगानेवाले समुद्र में यात्री लोग आपके प्रभाव से निर्भीक होकर लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं // 104-105 // जलोदरा दत्तदरा न जातु, ज्वराः प्रशान्तप्रसरा भवन्ति / न पुष्टतां कुष्टरुजः प्रमेहा, विदीर्णदेहा न समुद्भव(वह)न्ति // 106 // भगन्दरः प्रारणहरः कथं स्यात्, क्षणादू वरणानां क्षयमेति पीडा। ब्रूमः किमन्यत् तव नाममन्त्राद्, रुजः समस्ता अपि यान्ति नाशम् // 107 // हे पार्श्वजिनेश्वर ! (आपके नाम-मन्त्र के स्मरण से) मनुष्यों के जलोदर रोग से उत्पन्न भय नष्ट हो जाते हैं, ज्वर शान्त हो जाते हैं, कुण्ट रोग नहीं होते हैं और शरीर को नष्ट करनेवाले प्रमेह रोग भी नहीं होते हैं। इसी प्रकार प्राणों का हरण करने वाला भगन्दर भी कैसे हो सकता है ? घावों की पीड़ा शीघ्र दूर हो जाती है और अधिक क्या कहें ? आपके नाम-मन्त्र से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं // 106-107 // प्रापादकण्ठापितशृङ्खलौघर्बणैर्विशीर्णाः प्रतिगात्रदेशम् / व्यथावशेन क्षणमप्यशक्ता, उच्छ्वासमुल्लासयितुं समन्तात् // 108 // दशामवाप्ता भृशशोचनीयां, विमुक्तरागा निजजीवितेऽपि / नरा जपन्तस्तव नाममन्त्रं, क्षणाद् गलबन्धभया भवन्ति // 10 // हे जिनेश्वर ! पैर से कण्ठ तक जिनके साँकलें पड़ी हुई हैं और
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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