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________________ डा उनके घावों से प्रत्येक अंग से गले हुए शरीरवाले, पीड़ा के कारण क्षणमात्र भी श्वास लेने में असमर्थ, अत्यन्त शोचनीय दशा को प्राप्त एवं अपने जीवन से निराश बने हुए मनुष्य आपके नाममन्त्र का जप करके शीघ्र ही भय-बन्धन से छूट जाते हैं // 108-106 / / * इत्यष्टभीतिदलनप्रथितप्रभावं,. नित्यावबोधभरबुद्ध-समग्र-भावम् / / विश्वातिशायि-गुणरत्नसमहधाम ! त्वामेवदेव ! वयमीश्वरमाश्रयामः // 110 // विश्व में सर्वाधिक गुण-रत्नों के प्रागार हे जिनेश्वर देव ! इस प्रकार अष्टविध भय को नष्ट करने में प्रसिद्ध, प्रभाववाले, नित्य ज्ञानसमूह से समस्त भाव को जाननेवाले, ईश्वर स्वरूप आपका ही हम आश्रय लेते हैं / / 110 // . जिन ! कृपाढ्य ! भवन्तमयं जनस्त्रिजगतीजनवत्सल ! याचते। प्रतिभवं भवतो भवतात् कृपारसमये समये परमा रतिः // 111 // __हे तीनों जगत् के जीवों के प्रति वात्सल्य रखने वाले, दयालु जिनेश्वर देव ! यह जन (यशोविजय) आपसे यही याचना करता है कि-प्रत्येक जन्म में कारुण्यरस से पूर्ण अनुराग वना रहे // 111 // प्रणम्रहरिमण्डलीमुकुटनीलरत्नत्विषां, स्वकीयदशनत्विषामपि मिथः प्रसङ्गोत्सवे। . * पद्य क्रमाङ्क 64-65 से 108-106 तक जहाँ-जहाँ दो-दो पद्य साथ दिये हैं, उन्हें 'युग्म' समझना चाहिये।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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