________________ [ 117 सृजन्निव कलिन्दजा-सुरतरङ्गिणीसङ्गम, . भवान् भवतु भूतये भवभृतां भवत्सेविनाम् // 112 // हे जिनेश्वर ! प्रणाम करने के लिये भुके हुए इन्द्रादि देवों के मुकुट में जटित नील रत्नों की कान्ति एवं आपके दांतों को कान्ति के परस्पर सङ्गमरूप उत्सव में मानो गङ्गा और यमुना के संगम की सृष्टि करते हुए आप अपने भविक सेवकों के ऐश्वर्य के लिये हों अर्थात् उनका ऐश्वर्य बढ़ाएँ // 112 / / इति जिनपतिर्भूयो भक्त्या स्तुतः शमिनामिनस्त्रिदशहरिणीगीतस्फीत-स्फुरद्गुरणमण्डलः / प्रणमदमरस्तोमः कुर्याज्जगज्जनवाञ्छितप्रणयनपटुः पार्श्वः पूर्णी “यशोविजय"श्रियम् // 113 // इस प्रकार शान्त इन्द्रिय, भक्तों में श्रेष्ठ, देवाङ्गनाओं द्वारा गाये गये अनेक गुण-समूहों से शोभित, देव समूह से नमस्कृत, जगत् के प्राणियों के मनोरथ को पूर्ण करने में समर्थ भगवान् पार्श्व जिनेश्वर भक्ति से बार बार स्तुत होकर पूर्ण यश और विजय श्री को प्रदान करें // 113 // * इस स्तोत्र के अन्त में 110 वें पद्य से क्रमशः 'वसन्ततिलका, द्रुतबिल. म्बित, पृथ्वी और हरिणी छन्दों का प्रयोग हुआ है।