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________________ 154 ] किसी नयान्तर का सहयोग प्राप्त नहीं कर सकता। . .. इस पर यह प्रश्न उठता है कि 'अन्य नय के प्रतिपाद्य विषय को असत् बताते हुए अपने विषय को सत् सिद्ध करना ही नयों का कर्तव्य होता है, इसलिये जो नय दूसरे नय के विषय की असत्यता स्थापित करने में समर्थ न होगा, वह नय कहलाने का अधिकारी कैसे हो सकेगा?' ___ इसका उत्तर यह है कि 'अन्य नैय के विषय की असत्यता का प्रतिपादन करना नय के कर्तव्यों में सम्मिलित नहीं है, उसका कर्तव्य ' तो अपने विषय की असत्यता के निषेध का प्रतिपादन करना तथा अन्य नय के विषयों की सत्यता एवं असत्यता के प्रदर्शन में तटस्थ रहना है / तात्पर्य यह है कि नय की वास्तविकता अपने विषय के समर्थन में है न कि दूसरे नयों के विषय के खण्डन में / ' अतः नयान्तर का विरोध न करने पर भी नय नयत्व से च्युत नहीं हो सकता। और इस प्रकार नयों के एक दूसरे के खण्डन का व्यापार छोड़ देने पर सब नयों के समन्वयवादी स्याद्वादनय की विजय ध्रुव हो जाती है // 40 // त्यक्तस्वपक्षविषयस्य तु का वितण्डा ? पाण्डित्यडिण्डिमडमत्करणेऽन्यनिष्ठा। नग्नस्य नग्नकरतोऽपरनग्नशोर्षे, प्रक्षेपणं हि रजसोऽनुहरेत् तदेतत् // 41 // अपने सिद्धान्त का परित्याग कर अन्य नय (वेदान्त नय) में निष्ठावद्ध होकर नैयायिक यदि वैतण्डिक के समान माध्यमिक के मत का खण्डन करने की चेष्टा करेगा तो वह अपने पाण्डित्य का डंका न बजा सकेगा, क्योंकि अपने पक्ष का त्याग करने को विवश होना विद्वत्ता का लक्षण नहीं कहा जा सकता। ऐसी चेष्टा से तो केवल
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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