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________________ [153 स्याद्वाद एव तव सर्वमतोपजीव्यो, . नान्योऽन्यशत्रुषु नयेषु नयान्तरस्य / निष्ठा बलं कृतधिया क्व च नापि न स्व व्याघातकं छलमुदीरयितुं च युक्तम् // 39 // हे भगवन् ! आपके स्याद्वादसिद्धान्त में अन्य सभी मतों की बातें सम्मिलित रहती हैं, यह सिद्धान्त किसी अन्य मत का खण्डन नहीं करता अपितु विभिन्न मतों में समन्वय और सामञ्जस्य स्थापित करता है / अतः यह सब मतों का उपजीव्य-संरक्षक है, क्योंकि अन्य सिद्धान्त अपनी बात को यूक्तिसङ्गत बताते हए दूसरे की बातों का आडम्बरपूर्वक खण्डन करते हैं किन्तु स्याद्वादसिद्धान्त में ऐसी बात नहीं है / इस प्रकार जो नय एक दूसरे के विरोधी हैं उनमें से किसी एक पर आस्था रखनेवाले पुरुष को अन्य नय की सहायता से बल प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दूसरे नये नय को अपनाने से निजी नय के आधार पर निर्णीत सिद्धान्तों से च्युत हो जाना पड़ता है। अतः बुद्धिमान् मनुष्य को किसी मत का खण्डन करने लिए दूसरै नय का छलरूप से भी प्रयोग करना उचित नहीं है अपितु अपने ही नय पर निर्भर रहना चाहिये / / 36 // . कः कं समाश्रयतु कुत्र नयोऽन्यतर्कात्, प्रामाण्य-संशय-दशामनुभूय भूयः। ताटस्थ्यमेव हि नयस्य निजं स्वरूपं, स्वार्थेष्वयोगविरहप्रतिपत्तिमात्रात् // 40 // .प्रत्येक नय अन्य नय के तर्कानुसार अप्रामाणिक है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि कौनसा नय प्रमाण है और कौनसा अप्रमाण ? इस लिये किसी एक नय को सदोष सिद्ध करने के लिये कोई नय
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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