SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 152 ] है, किन्तु उनके पारिणामिक भाव उनके असाधारण धर्म हैं क्योंकि द्रव्यत्व, पृथिवीत्व आदि जो ज्ञेय के पारिणामिक भाव हैं वे ज्ञान के धर्म नहीं हैं और ज्ञानत्व, मतिज्ञानत्व आदि जो ज्ञान के पारिणामिक भाव हैं वे भी ज्ञेय के धर्म नहीं है, फलतः सहोपलम्भ-विषयत्वरूप साधारण धर्म की.अपेक्षा ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर अभेद तथा पारिणामिक भावरूप असाधारण धर्म की अपेक्षा उनमें परस्पर भेद है। ___ इस प्रकार जिन पदार्थों का जो साधारण धर्म होता है उसकी दृष्टि में उनमें भेद नहीं होता। इसलिये जिस प्रकार द्रव्यत्व पृथिवी और जल का साधारण धर्म है अतः उसकी दृष्टि से वे दोनों परस्पर भिन्न नहीं होते उसी प्रकार सहोपलम्भविषयत्व ज्ञान और ज्ञेय का साधारण धर्म है अतः उसकी दृष्टि से उन दोनों में भी परस्पर-भेद नहीं है, फलतः ज्ञेय कथञ्चित्-सहोपलम्भ दृष्टि से ज्ञान से भिन्न है। / इसी प्रकार जैसे पृथिवीत्व एवं जलत्व पृथिवी और जल के साधारण धर्म न होकर उनके असाधारण धर्म हैं वैसे ही घटत्वरूप आदि पारिणामिक एवं द्रव्यत्वरूप अनादिपारिणामिक भाव घटरूप ज्ञेय के धर्म न होकर घट रूप ज्ञेय के असाधारण धर्म हैं और मतिज्ञानत्व आदि सादि पारिणामिक भाव एवं ज्ञानत्वरूप अनादि पारिगामिक भाव घटरूप ज्ञेय के धर्म न होकर घटज्ञान के असाधारण धर्म हैं / इसलिये ज्ञेय में न रहनेवाले मतिज्ञानत्व, ज्ञानत्व आदि धर्मों का आश्रय होने से ज्ञान में ज्ञेय का भेद और ज्ञान में न रहनेवाले घटत्व, द्रव्यत्व आदि धर्मों का आश्रय होने से ज्ञेय में ज्ञान का भेद रहता है। फलतः ज्ञान में ज्ञेय का और ज्ञेय में ज्ञान का कथंचित् भेद भी रहता है। इस प्रकार उक्त रीति से ज्ञान और ज्ञेय में परस्पर-भेद और परस्पर-अभेद इन दो भङ्गों के सम्भव होने से बौद्ध मत में भी सप्तभङ्गी नर्य का अवतरण हो सकता है। और यदि वह स्वीकृत कर ले तो जैनमत के साथ इस मत का विरोध समाप्त हो सकता है // 38 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy