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________________ 188] की सिद्धि की सम्भाव्यता ही सूचित है // 64 // नाशोभवस्थिति-मति-क्रमशो न शक्तो, द्रव्यध्वनिस्तदिह नो पृथगर्थताभृत् / शब्दस्वभावनियमाद् वचनेन भेदः, स्वव्याप्यमिग-बहुत्व-निराकृतेश्च // 65 // उत्पत्ति, विनाश और ध्रौव्य को द्रव्यपद का अर्थ मानने पर यह प्रश्न होता है कि द्रव्य पद से उत्पत्ति आदि का.बोध भिन्न शक्तियों द्वारा होता है अथवा एक शक्ति द्वारा? यदि भिन्न शक्तियों द्वारा माना जाएगा तो हरि शब्द के समान द्रव्य शब्द नानार्थक हो जाएगा और उस दशा में द्रव्य शब्द से उत्पत्ति आदि तीनों का सहबोध न होकर एक-एक के पृथक 2 बोध की आपत्ति होगी और यदि एक शक्ति द्वारा तीनों अर्थों का बोध माना जाएगा तो जैसे पुष्पवन्त शब्द एक शक्ति से चन्द्र और सूर्य इन दोनों अर्थों का बोधक होने से द्विवचनान्त होता है वैसे ही एक शक्ति से तीन. अर्थों का बोधक होने से द्रव्य शब्द के नियमेन बहुवचनान्त होने की आपत्ति होगी? इस प्रश्न का समाधान इस पद्य द्वारा किया गया है कि जिस शब्द से जिन अर्थों का बोध एक साथ न होकर क्रम से होता है उन अर्थों में उस शब्द की भिन्न-भिन्न शक्ति मानी जाती है और वह शब्द उन अर्थों में नानार्थक माना जाता है। जैसे हरि शब्द से सिंह, वानर आदि का बोध क्रम से होता है। अतः उन अर्थों में हरि शब्द की शक्ति भिन्न 2 मानी जाती है और उन अर्थों में हरि शब्द नानार्थक माना जाता है / किन्तु जिस शब्द से जिन अर्थों का बोध क्रम से न होकर एक साथ ही होता है उन अर्थों में शब्द की भिन्न-भिन्न शक्ति न मान कर एक ही शक्ति मानी जाती है और उन
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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