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________________ [ 187 हे भगवन् ! आपने यह उचित ही देखा है कि उत्पत्ति, विनाश तथा ध्रौव्य-स्थायित्व के समाहार से ही द्रव्यत्व की प्रतीति होती है और उसी से बौद्धों द्वारा एकान्ततः क्षणिक एवं नैयायिकों द्वारा एकान्ततः नित्य माने गए आत्मा में द्रव्य व्यवहार तथा उसी से आत्मा में जैन शासनानुसार आत्मा के द्रव्यांश में उसके पर्याय अंश के भेद की सिद्धि होती है। तात्पर्य यह है कि बौद्ध दर्शन की एकान्त दृष्टि के अनुसार प्रात्मा प्रवहमान क्षणिक ज्ञानरूप है और नैयायिकों के अनुसार वह ज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत नित्य द्रव्य रूप है / भगवान् महावीर द्वारा दृष्ट द्रव्य लक्षण बौद्ध और नैयायिक दोनों के द्वारा स्वीकृत आत्मा में उपपन्न होता है / जैसे बौद्धसम्मत प्रात्मा में प्रवाही ज्ञान की अपेक्षा उत्पत्ति तथा विनाशं का और प्रवाह की अपेक्षा स्थिरत्व का समाहार सम्भव है। इसी प्रकार न्यायसम्मत आत्मा में ज्ञानादिगुणों की अपेक्षा उत्पत्ति और विनाश का तथा आश्रय की अपेक्षा ध्रौव्य का समाहार हो सकता है। अतः उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप लक्षण से ही द्विविध आत्मा में द्रव्य-व्यवहार को सिद्धि सम्भव है। लक्षण के अन्य प्रयोजन इतरभेद की सिद्धि भी इसी लक्षण से हो सकती है / जैसे जैन शासन के अनुसार आत्मा द्रव्यपर्याय उभयात्मक है एवं न्यायदर्शन का अनादिनिधन आश्रय द्रव्य तथा क्षणिक ज्ञानादि गुण पर्याय है। द्रव्य, पर्याय उभयात्मक इस आत्मा में पर्याय की अपेक्षा उत्पत्ति तथा विनाश और द्रव्य की अपेक्षा ध्रौव्य का समाहार होने से उत्पादव्ययध्रौव्य का समाहाररूप द्रव्यलक्षण अक्षुण्ण है, इस लक्षण से प्रात्मा में इतरभेद निर्बाधरूप से सिद्ध हो सकता है। क्योंकि अशुद्ध द्रव्यार्थिक द्वारा उक्त लक्षणरूप हेतु का ज्ञान तथा उसमें इतरभेद की व्याप्ति का ज्ञान अनायासेन सम्भव है। पद्य के उत्तरार्ध से उक्त रीति द्वारा आत्मा में द्रव्य व्यवहार तथा इतरभेद
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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