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________________ 50 ] हे देव ! विद्वान् लोग आपकी सेवा को मुख्य और महान् आनन्द का स्थान अथवा मोक्षप्रद कहते हैं / किन्तु इदं पद का तो किसी अन्य अर्थ में प्रयोग 'निरूढलक्षणा' से ही होता है / / 86 // प्रद्यावद्यापनोदादुदयति मम हुन्नन्दने पारिजातो, नद्याः सद्यः सुधाया मम तनुरखिला निर्भरैरद्य शस्ता। चिन्तारत्नं च मेऽभूत् कलितकरतलकोडसक्रीडनधि, श्रीर्मे त्वद्ये (य्ये)व भर्तर्भवति भवतिरोधानदक्षे प्रदृष्टे // 87 // हे स्वामिन् जिनेश्वर ! जन्म-जनित अथवा संसार-सम्बन्धी दुःखों का विनाश करने में समर्थ ऐसे आपके दर्शन होने से आज मेरे पापों का नाश हो जाने पर मेरे हृदयरूपी नन्दनवन में पारिजात (देववृक्ष) उत्पन्न हो रहा है। आज मेरा सारा शरीर अमृत की नदी के प्रवाहों से तत्काल पवित्र-निर्मल हो गया और मुझे मेरे करतल के विस्तार में क्रीड़ा करनेवाली लक्ष्मी से युक्त चिन्तामणि भी आज ही प्राप्त हो गई है जिससे मैं शोभित हैं।॥ 7 // याचे नाचेतनं यत् किमपि सुरमरिण नापि कल्पद्रुपूगं, स्वर्धेनुं नापि नापि प्रसृमरकमलाक्रीडितं कामकुम्भम् / सेवाहेवाकिदेवाधिपतिशतनतस्तद्भवानेव भर्तदाता मे पर्यवस्यन् भवतु भवतुदे वाञ्छितार्थे श्रिये च // 18 // - हे शर्खेश्वर पार्श्वनाथ ! मैं आपसे कोई अचेतन वस्तु-देवमणि नहीं मांगता हूँ और न कल्पवृक्ष के समूह की याचना करता हूँ, चेतन कामधेनु की भी मांग नहीं करता हूँ और न सुविस्तृत एवं लक्ष्मी के द्वारा आक्रीडित कामधट की ही याचना कर रहा है / अतः हे स्वामी, सेवाभावी सैंकड़ों इन्द्रादि देवों से नमस्कृत आप ही मेरे भव
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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