________________ [ 51 जनित दुःखों को दूर करने, अभिलषित वस्तु को देने और लक्ष्मी को प्रदान करने में समर्थ दाता बनें / / 88 / / सङ्कल्पाः कस्य न स्युनिजहृदयदरी-कोरणजाकूरकल्पाः, सेकच्छेकस्य तत्र प्रभवति नु परं भर्तुरिच्छा रसस्य / ते तत्त्वं याच्यमानः किमपि जिन ! मनःसञ्चरिष्णु विष्णुर्धाजिष्णुर्भावभाजां मम विमलफलं योग्य एवासि दातुम् // 8 // हे जिनेश्वर ! किस व्यक्ति की हृदयरूपी कन्दरा के कोण में उत्पन्न अंकुर के समान संकल्प नहीं होते ? किन्तु उस अंकुर को सींचने में चतुर स्वामी की इच्छा ही वहाँ रस को पूर्ण करने में समर्थ है। इसलिये कुछ भी याचना किये बिना ही आप मुझे निर्मल फल देने में समर्थ हो, क्योंकि आप भक्तों के मन में विचरण करनेवाले होनहार तथा शोभनशील हो // 86 // मोहापोहाय चेत् स्याज्जिनमतसुमता काम्यकर्मप्रलिप्सा, भर्तक्तिस्तु तत् स्यादभिविभुकृतया याच्या नानुबन्धः / तेनायं याचमानः किमपि जिन ! भवकिङ्करो योग्य एव, प्रायो योग्यत्वभाजस्तव पदकमले भृङ्गभूयं भजन्ते // 10 // हे स्वामिन् ! जिनमत से मानी हुई काम्यकार्य की प्रकृष्ट अभिलाषा यदि मोह का नाश करने के लिये है तो स्वामी के सम्मुख याचना करने में कोई आपत्ति नहीं है, कोई बन्धन अथवा दोष नहीं है अपितु ऐसा करने में भी स्वामी की भक्ति ही होती है। इसलिये हे जिनेश्वर ! आपसे कुछ माँगता हुआ यह सेवक योग्य ही है; क्योंकि योग्यता को रखनेवाले आपके सेवक प्रायः आपके चरण-कमलों में भँवरे बनकर सेवा करते हैं // 10 //