SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 72] स्तुत्या गुणाः शुभवतो भवतो न के वा, देवाधिदेव ! विविधातिशद्धिरूपाः / तर्कावतारसुभगैस्तु वचोभिरेभि स्त्वद्वाग्गुणस्तुतिरनुत्तरभाग्यलभ्या // 2 // साहित्यिक सौष्ठव का प्रवाह कहीं भी क्षीण नहीं होने पाया है। यमक की छटा पुनः पुनः मुखरित होकर प्रानन्दसिन्धु में निमज्जन' करवाती है तो कहीं अर्थापत्ति (प. 7), दृष्टान्त, काव्यलिङ्ग, (12) अर्थान्तरन्यास, रूपक आदि अर्थालंकारों का परिस्पन्द भी आनन्दित किये बिना नहीं रहता। कहीं पद्यों में अन्तःकथाओं का समावेश है (85) तो कहीं किंवदन्तियों को काव्यमाला में 'शास्त्राण्यधीत्य बहवोऽत्र भवन्ति मूर्खाः (87) कहकर पिरोया है। दर्शन-पक्ष का आश्रय श्रावक, चरित्रच्युत साधक एवं धर्माचरण में मन्दोत्साही तीनों के लिए आवश्यक है (17) यह बतलाते हुए उपाध्यायजी ने सत्य ही कहा है कि-दर्शन-श्रद्धा का धरातल दृढ होने पर अन्य सब साधनों के सम्पन्न होने का पथ प्रशस्त हो जाता है' (वहीं)। ऐसे अनूठे तत्त्वों का विवेचन उपाध्याय जी की दृष्टि में प्रभु महावीर की अनघ सेवा है। वे स्पष्ट कहते हैं कि विवेकस्तत्त्वस्याप्ययमनघसेवा तव भव- . स्फुरत्तृष्णावल्लीगहनदहनोद्दाममहिमा / हिमानीसम्पातः कुमतनलिने सज्जनदृशां, सुधापूरकरग्रहदगपराधव्यसनिषु // 104 // इसी प्रकार इस स्तोत्र की महिमा में लिखा गया यह पद्य इदमनवमं स्तोत्रं चक्रे महाबल ! यन्मया, तव नवनवस्तर्कोद्ग्राह भृशं कृतविस्मयम् / . तत इह बृहत्तर्कग्रन्थश्रमैरपि दुर्लभां, . कलयतु कृती धन्यम्मन्यो 'यशोविजय' श्रियम् // 106 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy