________________ 138 ] प्रकाशन करता है / / 22 / / त्वच्छासने स्फुरति यत् स्वरसादलीकादाकारतश्च परतोऽनुगतं तु बाह्यम् / आलम्बनं भवति सङ्कलनात्मकस्य, तत्तस्य न त्वतिविभिन्नपदार्थयोगात // 23 // अलीक और ज्ञानाकार से भिन्न घट, पट आदि जितनी भी बाह्य वस्तुएँ हैं, वे हे भगवन् ! आपके शासन में अतिरिक्त अनुगमकएकरूपता के सम्पादक और व्यावर्तक-भेदक धर्म के बिना ही अनुगत और व्यावृत्त है, उनकी अनूगतता-एकरूपता और व्यावृत्तता-भिन्नता स्वारसिक अर्थात् स्वाभाविक है। एवं ये वस्तुएँ जिस प्रत्यभिज्ञा नामक ज्ञान में स्फुरित होती है वह भी केवल प्रत्यक्षरूप न होकर संकलनरूप है, और उस ज्ञान में उन वस्तुओं का जो स्फुरण होता है वह भी इसलिये नहीं कि वे अपने से अत्यन्त भिन्न, स्थायी और अनुगत घटत्व आदि धर्मों से युक्त हैं, अपितु इसलिये कि वे स्वभावतः अनुगत अर्थात् एकरूप हैं // 23 // . तद्भिन्नतामनुभवस्मरणोद्भवत्वाद्, द्रव्याथिकाश्रयतयेन्द्रियजाद्विति / भेदे स्फुरत्यपि हि यद् घटयेदभिन्न, भेदं निमित्तमधिकृत्य तदेव मानम् // 24 // सोऽयम्-यह प्रत्यभिज्ञा नामक ज्ञान सः-इस अंश के स्मरण और अयम्-इस अंश के अनुभव से उत्पन्न होने के कारण संस्कारनिरपेक्ष इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष से भिन्न है, उसमें तत्ता ओर इदन्ता-इन विभिन्न विशेषणों का स्फुरण होने से यद्यपि उन