________________ 128 ] हे भगवन् ! आपका प्रतिवादी बौद्ध जिस साध्य का साधन करना चाहता है उसकी सिद्धि 'समर्थविषयव्यापार' से भी नहीं हो सकती; क्योंकि 'कार्य की उत्पादकता की व्याप्ति सहकारिवर्ग से युक्त हेतु में ही होती है न कि मुख्य समर्थ व्यवहार में / ' अतः वह अधिकांश रूप में जन्म-विषयक होने पर भी स्वरूप-योग्यता से ही उत्थित होता है // 7 // एतावतैव हि परप्रकृतप्रसङ्गभङ्गेन सिद्धयति कथाश्रित-पूर्वरूपम् / शिष्यविधेयमुचितं विशद-स्वभावं. . प्रश्नोत्तरं तु तव देव ! नयप्रमाणेः // 8 // हे देव ! यद्यपि ['समर्थ-पदार्थके व्यवहार में कार्यकारिता की व्याप्ति नहीं है' इतना प्रतिपादन कर देने मात्रसे ही] पूर्वपक्ष में बौद्ध द्वारा उपस्थित किए गए तर्क का खण्डन हो जाने से कथा का पूर्वरूप सम्पन्न हो जाता है; तथापि प्रतिवादी के जिज्ञासुभाव से वस्तु-स्वभाव के बारे में प्रश्न करने पर आपके शिष्यों को समस्त नयरूप-प्रमारणों द्वारा उस प्रश्न का यथार्थ उत्तर देना ही चाहिए // 8 // . स्याद्वादनाम्नि तव दिगविजयप्रवृत्ते, सेनापतौ जिनपते ! नय सार्वभौम ! / नश्यन्ति तर्कनिवहाः किमु नाम नेष्टा पत्तिप्रभूतबलपत्तिपदप्रचारात् // 6 // हे समस्त नयों के सम्राट् जिनेश्वर ! आपके स्याद्वादरूप सेनापति के [अन्य नयों के दुर्ग में निवास करने वाले अज्ञान का विनाश करने के उद्देश्य से] दिग्विजय हेतु प्रवृत्त होने पर क्या [उसी समय