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________________ 46 ] रखते हुए यह पाठ होने से सफल होता है। तीसरी बात है स्तोत्र-पाठ नित्यकर्म के पश्चात् करने की। यह सामान्य प्रक्रिया है। 'ज्ञानपूर्वक किया हुआ कर्म निष्फल नहीं होगा' इस बात को ध्यान में रख कर स्तोत्र के छन्द बोलने की पद्धति, शुद्ध उच्चारण और रसानुकूल स्वरोच्चार ये सब बातें पूज्य गुरुदेव अथवा योग्य विद्वान् से सीख लेना भी हितावह है। कतिपय सिद्ध स्तोत्र विश्व-साहित्य के विराट् दर्शन में यदि ध्यानपूर्वक देखा जाए तो यह निश्चित रूप से कहना पड़ेगा कि सर्वाधिक साहित्य में स्तुतिसाहित्य जितना विशाल है उतना अन्य साहित्य नहीं। वेद, आगम, सुत्त-पिटक आदि सभी में स्तुतियाँ हैं। पुराणों में बहुधा स्तुतियाँ वर्णित हैं। महाकाव्यों में भी इन्हें प्रासङ्गिक स्थान मिला है / स्वतन्त्र स्तोत्र-स्तुतियाँ भी अनन्त हैं तथा लौकिक भाषाओं में भी इनकी न्यूनता नहीं है। ऐसे स्तोत्रों में कतिपय स्तोत्र 'सिद्ध-स्तोत्र' कहे जाते हैं इनके सिद्ध कहलाने का हेतु क्या है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इसका समाधना यह है कि १-इनमें कुछ स्तोत्र स्वयं देवताओं द्वारा वरिणत होकर उनके द्वारा ही सिद्ध कहे गये हैं।' २-कुछ स्तोत्र ऋषि-मुनियों अथवा देवताओं द्वारा प्रोक्त होने पर स्वयं स्तोतव्य द्वारा सिद्ध होने का वरदान दिया गया है। ३-कतिपय स्तोत्र पठित-सिद्ध भी होते हैं, जिनका तात्पर्य है कि स्तोता किसी का पाठ करते रहता है और उस 1. दुर्गासप्तशती, भैरवनामावली आदि में ऐसे पाठ मिलते हैं / यथा-. युष्माभिः स्तुतयो याश्च याश्च ब्रह्मर्षिभिः कृताः / ब्रह्मणा च कृतास्तास्तु प्रयच्छन्तु शुभां मतिम् // अथवा * एभिः स्तवैश्च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः / तस्याहं सकलां बाधां शमयिष्याम्यसंशयम् // दुर्गा० // ..
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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