________________ [ 45 से स्तुति करे। ___ इससे यह स्पष्ट है कि जो स्तुति केवल स्तुति हो अथवा तोतारटन्त अथवा रूढिपालन मात्र हो, तो उससे कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता वह तो सच्चे हृदय से होनी चाहिये / स्तुतिकर्ता स्तोतव्य के गुणों की अनुभूति करता हया उसी का अनुरागी बनकर अथवा तद्रूप बनकर उन गुणों को स्वयं अपने में विकसित करने का प्रयास करे तो स्तुति का उद्देश्य एवं उसका फल सिद्ध होता है / इसके साथ ही श्रद्धा और विश्वास, मन, वचन तथा काया के द्वारा स्तुत्य के प्रति निष्ठा होना भी पूर्ण आवश्यक है। वैसे स्तुति साधना के आवश्यक अंग 'ध्यान' का ही विशदरूप कहा जा सकता है। अनेक भक्त साधक जब अपने आराध्य का ध्यान-पद्यात्मक स्वरूप वर्णन करते हैं तो जिस प्रकार का वर्णन होता है उसी प्रकार का स्वरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। स्तुति में भी यही स्थिति अपेक्षित हैं / विविध छन्दों का प्रयोग, काव्य-कला से पूर्ण शब्द-विन्यास, अलंकृत शैली और कल्पनामूलक भाव-समावेश आदि स्तुतियों में इसी तथ्य को सामने रखकर लिखे जाते हैं कि उनके पठन-श्रवण से निर्मल-चित्त में वर्णनानुसारी प्रतिबिम्ब अङ्कित हो सके तथा कुछ क्षणों के लिये तदाकाराकारित चित्तवत्ति बने। महाकवि कालिदास ने लिखा है कि 'स्तोत्रं कस्य न तुष्टये ?'स्तोत्र किस की प्रसन्नता के लिये नहीं होता ? इसका तात्पर्य यह है कि स्तोत्रपाठ में तुष्टिकारिता होनी चाहिये। वैसे शास्त्रों में कहा गया है कि 'स्तोत्र का मानसिक स्मरण और मन्त्र का वाचिक स्मरण दोनों ही फूटे हए कलश में पानी भरने के समान हैं,।' अतः स्तोत्रपाठ मधुर स्वर से वाचिक रूप में होना चाहिये, साथ ही अर्थानुसन्धान.-'जो बोला जा रहा है उसका अर्थ क्या है ? इसका ज्ञान-' 1. मनसा यः स्मरेत् स्तोत्रं, वचसा वा मर्नु जपेत् / उभयं निष्फलं देवि ! भिन्नभाण्डोदकं यथा ॥-कुलार्णवतन्त्र, उल्लास 15