________________ 44] मार्गानुसरण की पद्धति की गणना सामुद्रिक तरङ्ग, नक्षत्रमाला एवं सिकतासमूह की गणना के समान नितान्त दुःशक्य है। स्तुति करने की पद्धति स्तुति किस प्रकार की जाय ? यह एक प्रश्न है। प्रायः स्तोत्रकार स्तुति के प्रारम्भ में प्रगन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ?,' महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी- "ममाप्येष स्तोत्र हर निरपवादः परिकरः,२ सरति सरति चेत: स्तोतुमेतन्मदीयं, न ता गिरो या न वदन्ति ते गुणान् , स्तवनमिषात्ते निजां जिह्वाम्', त्वं नाथस्त्वां स्तुवे नार्थ इत्यादि सहस्रों तर्क-वितर्क देकर अपनी आसक्ति, अज्ञान, आवश्यकता प्रादि को सिद्ध करते हुए प्रवृत्ति को सिद्ध करता है तथा प्राचार्य समन्तद्र ने 'स्वयम्भूस्तोत्र' में कहा है कि- स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल-परिणामाय स तदा, भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः। किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे' श्रेयसपथे, स्तुयान्न त्वां विद्वान् सततमभिपूज्य नमिजिनम् / / 116 / / इस प्रकार उत्तम स्तोता. के कुशल परिणामों के लिये होती है फिर उसका फल प्राप्त हो, अथवा नहीं / इसलिये स्तुति फलाकांक्षा से रहित होकर 'दीपक में जलने वाली बत्ती के समान तैलादि से सज्जित होकर, जैसे वह दीपक की उपासना करती हुई उसके चरणों में ही तन्मयता-पूर्वक अपने आपको समर्पित कर देती है, तद्रूप बन जाती है और स्वयं दीप के समान बनकर प्रकाशमान हो जाती है, वैसे ही' स्ततिकार भी स्वयं में उस शुद्ध स्वरूप को विकसित करने की दृष्टि 1. सौन्दर्यलहरी में श्री शङ्कराचार्य / 2. महिम्न: स्तोत्र में श्रीपुष्पदन्त / 3. सर्वजिन साधारण स्तव में श्री नरचन्द्र सूरि / 4. साधारणजिन स्तवन में श्री बप्पभट्ट सूरि / 5. जिनस्तुतिपञ्चाशिका में महीमेरुमुनि। 6. साधारण जिन स्तवन में श्री सोमप्रभ सूरि /