________________ 218 ] श्रेष्ठता उचित है / यदि यह कहा जाए कि ज्ञान भावरूप होता है और क्रिया द्रव्यरूप होती है, तथा भाव और द्रव्य में भाव की ही प्रधानता सर्वमान्य है, अतः द्रव्यरूप क्रिया की अपेक्षा भावरूप ज्ञान की ही प्रधानता मानना उचित है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि स्याद्वाद की उपेक्षा करके एकान्ततः ज्ञान को भावात्मक और क्रिया को द्रव्यात्मक नहीं माना जा सकता किन्तु ज्ञाननिरपेक्ष क्रिया द्रव्यत्व और ज्ञानसापेक्ष क्रिया भावरूप, इसी प्रकार क्रियानिरपेक्ष ज्ञान द्रव्यरूप और क्रियासापेक्ष ज्ञान भावरूप होता है, यही बात मान्य है। फिर जब ज्ञान और क्रिया दोनों द्रव्यभाव उभयात्मक हैं तो द्रव्यभावात्मकता की दृष्टि से ज्ञान को क्रिया की अपेक्षा प्रधान कैसे कहा जा सकता __यदि यह कहा जाय कि ज्ञान मोक्ष का अन्तरंग कारण है और क्रिया बहिरंग कारण है अतः मोक्ष की सिद्धि में ज्ञान क्रिया की अपेक्षा प्रधान है, तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन दोनों की अन्तरंगता और बहिरंगता भी एकान्तरूप से मान्य नहीं है, किन्तु योगरूप से दोनों बहिरंग भी हैं और उपयोगरूप से दोनों अन्तरंग भी हैं अतः जब यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञान अन्तरंग ही होता है और क्रिया बहिरंग ही होती है तब अन्तरंग बहिरंग की दृष्टि से एक को अन्य की अपेक्षा प्रधानता कैसे दी जा सकती है ? (इस श्लोक में फलप्राप्ति के प्रति क्रिया के उस व्यभिचार का परिहार किया गया है जो एकासीवें श्लोक में उद्भावित किया गया था // 88 // ) आकर्षणादिनियताऽस्ति जपक्रियेव, पत्युः प्रदर्शयति सा न मुखं परस्य / वैकल्पिकी भवतु कारणता च बाधे, द्वारित्वमप्युभयतो मुखमेव, विद्मः // 8 //