________________ [ 216 अब इस पद्य में एकासीवें पद्य के इस कथन का निरास किया गया है कि क्रिया के न रहने पर भी केवल मन्त्रज्ञान से आकर्षण आदि की सिद्धि होने से फलप्राप्ति के प्रति क्रिया की अपेक्षा ज्ञान का प्राधान्य है / श्लोकार्थ इस प्रकार है- आकर्षण आदि के पूर्व केवल आकर्षणादिकारी मन्त्र के ज्ञान का ही अस्तित्व नियत नहीं है, अपितु उस मन्त्र के जप की क्रिया का भी अस्तित्व नियत है। यह बात सर्वविदित है कि आकर्षणकारी मन्त्र के ज्ञानमात्र से आकर्षण नहीं सम्पन्न होता, अपितु उसका जप करने से सम्पन्न होता है, अतः मन्त्रजपात्मक क्रिया से आकर्षण की सिद्धि होने के कारण आकर्षण को मन्त्रज्ञानमात्र का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता प्रतिष्ठित नहीं की जा सकती। ___ इस सन्दर्भ में एकासीवें पद्य में जो यह कहा गया कि 'जहाँ क्रिया लज्जित-सी अपना मुख छिपाये रहती है वहाँ भी केवल मन्त्रज्ञान से ही आकर्षण आदि कार्य होते हैं वह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त स्थल में आकर्षण आदि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया अपने स्वामी स्याहादी के सम्मुख अपना मुख नहीं छिपाती उसे तो अपने मुख का प्रदर्शन करती ही है। किन्तु वह मुख छिपाती है उससे जो स्याहादविरोधी होने से उसका मुख देखने का अधिकारी नहीं है। कहने का आशय यह है कि जो लोग क्रिया की उपेक्षा कर केवल ज्ञान को ही फल का साधक मानते हैं ऐसे एकान्तवादी को ही आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया की उपस्थिति विदित नहीं होती। पर जो लोग इस एकान्तवाद में निष्ठावान् नहीं हैं ऐसे विवेकशील स्याद्वादी को आकर्षणादि के पूर्व मन्त्रजपात्मक क्रिया की उपस्थिति स्पष्ट अवभासित होती है। अतः आकर्षण आदि को क्रिया-निरपेक्ष मन्त्रज्ञान का कार्य बताकर क्रिया की अपेक्षा ज्ञान को प्रधानता प्रदान करना * उचित नहीं हो सकता।