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________________ [ 26 कुदर्शनों के कार्यानुरोध से "अर्थात् 'सभी कार्य सकर्तृक हैं अलः संसार का कर्ता ईश्वर है" इसके अनुरोध से (दुराग्रह से, किसी तरह मानने पर) नित्य कर्ता की तरह नित्यतनु (शरीररूप कार्य) भी होना चाहिए और यदि जगत् रूप शरीरों से वह शरीरी है, तो हम भी ईश्वर बन सकते हैं // 14 // उत्पत्तिनाशौ न यथा नितान्तं, नेयं सिगृक्षा न च सजिहीर्षा / मृषा गुरणारोपकृता किलैषा, विडम्बना केवलमीश्वरस्य // 15 // ___ कुदर्शनों ने ईश्वरकृत जगत् की उत्पत्ति और संहार को जैसा कहा है वैसी न उत्पत्ति हैं और म संहार है / ईश्वर को न संसार बनाने की इच्छा है और न संहार करने की ही इच्छा है अपितु असत्य गुणों का आरोप करनेवालों ने यह कहकर केवस्व ईश्वर का उपहास ही किया है // 15 // देवं परे श्रद्दधते यदीमे, कषायकालुष्य कलङ्कशून्यम् / तदा मदापूरिणतलोचनेयं, गौरी वरीतुं वरमोहतां कम् // 16 // ___यदि दूसरे लोग अपने देव-शिव को 'ये कषाय की कालिमा से रहित देव हैं' ऐसा मानकर उन पर श्रद्धा करते हैं तो फिर मदमाती आँखोंवाली यह पार्वती अपने वर के रूप में वरण करने के लिये किस देव की इच्छा करे ? // 16 // देवं परे श्रद्दधते यदीमे, कालीकटाक्षस्पृहरणीयशोभम् / कुतस्तदा श्रद्दधते न भानु, समुद्धतध्वान्तविलुप्तदीप्तिम् // 17 // और ये दूसरे यदि काली के कटाक्ष से स्पृहणीय शोभावाले शङ्कर को देव मानते हैं तो फिर महान् अन्धकार के विनाशक तेजस्वी सूर्य . (जिनेश्वर) को देव क्यों नहीं मानते हैं ? // 17 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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