________________ 28] सर्वत्र कार्ये न कृतिनिमित्तं, विलक्षणत्वेन यत्र तत्त्वम्। .. जिनेश ! किञ्चिन्निजवासनायां, न्यायं नयन्तः कुदृशः पतन्ति // 11 // __कार्य के विलक्षण होने से सभी कार्यों में कर्ता का व्यापार कारण नहीं है। इसमें जो एक तत्त्व है उसे न समझकर कुछ अपनी वासना (मिथ्याज्ञानजन्य एक संस्कार) में न्याय को ले जाते हुए कुदृष्टिवाले लोग गिर जाते हैं // 11 // इत्थं च कार्य न सकर्तृ कत्वं, शक्यं बुधैः कार्यतयाऽनुमातुम् / तकं विना यत् किल जागरूकः, शरीरजन्यत्वमुपाधिरत्र // 12 // .. और इस प्रकार कार्य में सकर्तृ कत्व का अनुमान करने के लिये -अर्थात् सभी सकर्तृक हैं 'कार्यत्वाद् घटवत्' ऐसा अनुमान करने के लिये कार्यता (कार्य के विविध लक्षण से) कोई भी पण्डित समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि "सभी कार्य कर्तृजन्य हैं' ऐसा मानने पर यहाँ तर्क के बिना ही शरीरजन्यत्व उपाधि (न्याय का एक दोष) आ खड़ी होती है // 12 // भवेद् भवे दुर्नयतो हि नित्य-प्रमेव नित्यभ्रम एव भूयान् / . मानं यतस्तस्य धियो न किञ्चित्, प्रत्यक्षतायां किल पक्षपाति // 13 // चूंकि दुर्नय से भव (ईश्वर अथवा जगत्) में नित्य-प्रमा की तरह अधिक नित्यभ्रम ही होगा, क्योंकि उस (दुर्नय) की बुद्धि) का मान (प्रमाण) कुछ भी नहीं है, वह मान प्रत्यक्षता में ही पक्षपात करने वाला अर्थात् प्रत्यक्ष को ही माननेवाला है // 13 // कार्यानुरोधेन कुदर्शनानां, कर्तव नित्यस्तनुरस्तु नित्या। जगच्छरीरैर्यदसौ शरीरी, तदीश्वरास्तहि वयं भवामः // 14 //