________________ . [64 इस प्रकार यह स्तोत्र प्रात्मीयभावों की पूर्ति में सहायता को इच्छा से प्रावृत्त है तथा कोमल शब्दावली से संसक्त होकर स्तोताओं के लिए वाञ्छापूरक है। (5) श्रीशवेश्वरपार्वजिनस्तोत्र यह स्तोत्र भी उपाध्याय जी महाराज द्वारा शखेश्वर पार्श्वनाथ . की स्तुति में ही निर्मित है। इसके प्रारम्भ में वाराणसी-निवास काल में सरस्वती देवी की कृपा से प्राप्त विशिष्ट बुद्धि का स्मरण कराते हुए 'समूलमुन्मूलयितुं रुज: स्वाः' कहकर बुद्धि की कृतार्थता एवं अपने रोगों के समूलनाश को स्तुति-रचना का कारण बताया है। स्तुति में वर्ण्य-विषय दार्शनिक अधिक बन गया है। जगत्कर्तृत्ववाद का खण्डन. प्रभु के शरीर का माहात्म्य, जन्म से ही सहोत्थित तीर्थंकरों के चार अतिशय, स्याद्वाद के स्वरूप का निरूपण तथा प्रभु के गुणों की महिमा के वर्णन इसके वैशिष्ट्य को निखारते हैं। भाव एवं भाषा की प्राञ्जलता में आवेष्टित प्राचीन सम्प्रदायसिद्ध अन्तःकथाओं का समावेश तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवरूप ही श्रीपार्श्वनाथ को सिद्ध करने के लिए 'महाव्रती होने से शङ्कर, जगत् के पितामह होने से ब्रह्मा तथा पुरुषोत्तम होने से विष्णरूप' होने की बात कही है। यहां क्रमभङ्ग भी हुआ है / वर्णन-पद्धति में बहुधा अन्य देवों में कुछ न्यूनताएँ दिखलाई गई हैं और उनसे मुक्त रहने के कारण श्रीपार्श्वनाथ को सर्वपूज्य माना है / अनेक पद्यों में न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध दृष्टान्तों को भी स्थान मिला है। नैषधीय-चरित के कई पद्यों की छाया इस स्तोत्र में प्राप्त होती है। अपह नुति अलङ्कार के माध्यम से यहाँ चन्द्रमा को अनेकरूप में प्रस्तुत किया है / उसका कलङ्क विविध तर्को से लगभग 20 पद्यों के द्वारा निःसार सिद्ध किया है। इसी प्रकार विधाता की विविध शास्त्र-निष्णात मेधा को भी व्यर्थ बताने का प्रयास हुआ है।