________________ [ 225 न ज्ञानदर्शनगुणाढ्यतया प्रमादः, . कार्यस्तदार्यमतिभिश्चरणे कदापि // 66 // देव, मनुष्य पशु-पक्षी तथा नारकीय जीव आदि की जितनी भी योनियाँ हैं वे ज्ञान और श्रद्धा से युक्त पुरुषों से शून्य नहीं होती, अर्थात् ज्ञान और श्रद्धा से सम्पन्न जीव सभी योनियों में होते हैं, किन्तु मनुष्य-योनि की यह विशेषता है कि उसमें जीव को चारित्र अर्जन करने का अवसर मिलता है और वह उस अवसर का लाभ उठाकर चारित्र से मण्डित हो जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। तो फिर जब यह स्पष्ट है कि ज्ञान और श्रद्धा के गुणों से सम्पन्न होने पर भी चारित्र के अभाव में जीव को विविध योनियों में भटकना पड़ता है तो सद्बुद्धि मानव को अपने ज्ञान और श्रद्धा के वैभव पर अहङ्कार न कर चारित्र के अर्जन में ही दत्तचित्त होना चाहिये और इस विषय में उसे कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये // 16 // श्राद्धश्चरित्रपतितोऽपि च मन्दधर्मा, पक्षं त्रयोऽपि कलयन्त्विह दर्शनस्य / चारित्रदर्शनगुणद्वयतुल्यपक्षा, दक्षा भवन्ति सुचरित्रपवित्रचित्ताः॥१७॥ श्रावक, चारित्र की समुन्नत मर्यादा से च्युत साधक तथा धर्म के आचरण में मन्द उत्साहवाले मानव इन तीनों को ही मोक्षमार्ग पर प्रस्थान करने के लिये दर्शन-पक्ष का आश्रय लेना चाहिये। क्योंकि दर्शन-श्रद्धा का धरातल दढ होने पर अन्य सब साधनों के सम्पन्न होने का पथ प्रशस्त हो जाता है। जिन साधकों के चारित्र और दर्शन दोनों पक्ष समानरूप से परिपुष्ट होते हैं वे सम्यक् चारित्र के प्रभाव से