________________ 226 ] पवित्र चित्त होने के कारण मोक्ष को प्रात्मसात् करने में दक्ष होते हैं। तात्पर्य यह कि चारित्र की श्रेष्ठता प्रत्येक स्थिति में अक्षुण्ण है / / 17 / / संज्ञानयोगघटितं शमिनां ततोऽपि, श्रेण्याश्रयादिह निकाचितकर्महन्त / बाह्य तपः परमदुश्चरमाचरध्व माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृहरणार्थम् // 6 // सम्यग् ज्ञानरूप योग से युक्त तप अपूर्वकरण की श्रेणी का पालम्बन कर शमसम्पन्न साधकों के निकाचित-भोगमात्र से ही नष्ट करने योग्य सञ्चित कर्मों को भी नष्ट कर देता है। अतः साधक को अपने आध्यात्मिक तप के बलवर्धन के लिये परम कठिन भी बाह्य तप का अनुष्ठान बड़ी तत्परता के साथ करना चाहिये / / 68 // इत्थं विशिष्यत इदं चरणं तवोक्ती, तैस्तैर्नयैः शिवपथे स्फुटभेदवादे। चिच्चारुतां परमभावनयस्त्वभिन्न रत्नत्रयीं गलितबाह्यकथां विधत्ते // 66 * पूर्वोक्त रीति से भिन्न-भिन्न नयों की दृष्टि से मोक्षमार्ग की भिन्नता नितान्त स्पष्ट है, फिर भी भगवान् महावीर के शासन में ज्ञान एवं दर्शन की अपेक्षा चारित्र का ही उत्कर्ष माना गया है और परम भावनय-शुद्ध निश्चयानुसारी बाह्यकथा-समस्त भेदचर्चा का विदलन कर ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय की फलतः अभिन्नता का प्रतिपादन करता हुआ चित्स्वरूप प्रात्मा की चारुता-विशुद्ध-स्वरूप * यहाँ तक इस स्तव में 'वसन्तलिका छन्द' का प्रयोग हुआ है।