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________________ [ 227 निष्ठा को प्रतिष्ठित करता है / 66 // (शिखरिणी छन्द) अशुद्धिः शुद्धि न स्पृशति वियतीवात्मनि कदाप्यथारोपात्कोपारुणिमकरिणकाकातरदृशाम् / त्वदुक्ताः पर्याया घनतरतरङ्गा इव जवाद्विवर्त्तव्यावृत्तिव्यतिकरभृतश्चिज्जलनिधौ // 10 // जिस प्रकार धूल, धुप्रां, वर्षा आदि का उत्पात होने पर किसी प्रकार की भी मलिनता आकाश की निसर्ग निर्मलता को कभी निरस्त नहीं कर सकती उसी प्रकार क्रोध के अरुण-कणों से कातर नेत्र-वाले विरोधियों के आरोप से किसी प्रकार की भी अशुद्धि आत्मा की स्वाभाविक शुद्धि को कदापि अभिभूत नहीं कर सकती। भगवान् महावीर ने आत्मा में मनुष्यत्व, देवत्व आदि जिन पर्याओं का अस्तित्व बताया है और जिनमें नाना प्रकार के विवर्तों के विविध आवर्तनों के संसर्ग होते रहते हैं, चित्समुद्र आत्मा में उनकी स्थिति ठीक वही है जो जल के महासमुद्र में वेग से उत्थान-पतन को प्राप्त करनेवाले उसके उद्विक्त तरंगों की होती है। कहने का आशय यह है कि जैसे समुद्र और उसकी तरंगों को एक-दूसरे से भिन्न प्रमाणित नहीं किया जा सकता उसी प्रकार चिद्रूप आत्मा और उसके अनन्तानन्त पर्यायों को भी एक-दूसरे से भिन्न नहीं सिद्ध किया जा सकता / अर्थात् छोटी-बड़ी अगणित तरंगों की समष्टि से आवेष्टित जल ही जैसे समुद्र का अपना स्वरूप है वैसे ही आगमापायी स्व, पर अनन्त पर्यायों से आलिङ्गित चित् ही आत्मा का अपना वास्तविक स्वरूप है। विरुद्ध मतवादियों द्वारा बड़े आग्रह से जिन धर्मों का आरोप किया जाता है वे आत्मा के स्वरूप-निर्वर्तक नहीं हो सकते // 100 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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