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________________ 228 ] न बद्धो नो मुक्तो न भवति मुमुक्षुन विरतो, .. न सिद्धः साध्यो वा व्युपरतविवर्त्तव्यतिकरः। असावात्मा नित्यः परिणमदनन्ताविरतचि च्चमत्कारस्फारः स्फुरति भवतो निश्चयनये / / 101 // भगवान् महावीर के निश्चयनय के अनुसार आत्मा न बद्ध है, न मुक्त है, न मोक्ष का इच्छुक है, न कर्म-विरत है, न सिद्ध है और न साध्य है; उसमें किसी प्रकार के वित का कोई सम्पर्क नहीं है, वह नित्य है और निरन्तर परिणाम को प्राप्त होते रहने वाले असीम, शाश्वत चिदानन्द का स्वप्रकाश-विकास है / / 101 // दृशां चित्रद्वैतं प्रशमवपुषामद्वयनिधिः, प्रसूतिः पुण्यानां गलितपृथुपुण्येतरकथः / फलं नो हेतु! तदुभयमथासावनुभय स्वभावस्त्वज्जाने जयति जगदादर्शचरितः // 102 // - आत्मा विभिन्न नयदृष्टियों से सम्पन्न पुरुषों के लिये अाश्चर्यकारी द्वैत और प्रशमप्रधान पुरुषों के लिये चिदानन्दमय अद्वैत है। वह पुण्यों का कारण है और पाप की बृहत्कथाओं से परे है। वह एकान्ततः न किसी का कार्य है और न किसी का कारण। वह अपेक्षा से कार्य-कारण उभयात्मक भी है और साथ ही कार्य-कारण अनुभयात्मक भी है तथा संसार में उसका चरित्र आदर्श-स्वरूप है। भगवान् महावीर के केवलज्ञान में उस (प्रात्मा) का यही स्वरूप स्फुरित हुआ है // 102 // गुणः पर्यायैर्वा तव जिन ! समापत्तिघटनादसौ त्वद्रूपः स्यादिति विशदसिद्धान्तसररिणः /
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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