________________ [ 263 यत्सूत्र-कुलिशच्छिन्नपक्षाः कुमतपर्वताः / उत्सूत्राम्भोनिधौ पेतुर्गुरुरिन्द्रः स वः श्रिये // 7 // जिनके सूत्ररूपी वज्र से कुमतरूपी पर्वत अपने पक्ष एवं पंखों के कट जाने पर उत्सूत्ररूपी समुद्र में जाकर गिर गये हैं ऐसे इन्द्ररूप गुरुदेव आपके कल्याण के लिये हैं / / 7 // उत्सूत्राब्धि-पतज्जन्तु-जाताभ्युद्धरणक्षमा। देशना नौरभूद्यस्य तं गुरुं समुपास्महे // 8 // उत्सूत्ररूपं समुद्र में गिरते हुए प्राणिमात्र का उद्धार करने में समर्थ जिनकी देशना नौकारूप बनी हुई है, उन गुरुदेव की हम उपासना करते हैं // 8 // सिद्धान्तनोंति-जाह्नव्यां यो हंस इव खेलति / गुरौ दोषा न लक्ष्यन्ते तत्र खे लतिका इव // 6 // सिद्धान्त नीतिरूप गंगा में जो हंस के समान विचरण करते हैं ऐसे गुरुदेव में आकाश में जिस प्रकार लता नहीं दिखाई देती उसी प्रकार कोई भी दोष नहीं दिखाई देते हैं // 6 // सूत्रस्थितिमनो यस्य जागुलीवाधितिष्ठति / पराभवितुमेनं न प्रभवन्ति रिपूरगाः // 10 // जिनका मन सूत्रस्थिति के कारण जांगुलि=विषवैद्य के समान ' स्थित है यही कारण है कि उनको परास्त करने में शत्रुरूपी सर्प समर्थ नहीं हो पाते हैं // 10 // वान्तमोहविषस्वान्त-कान्तशान्तरसस्थितिः। हताघध्वान्तसिद्धान्त-नीतिभृज्जयताद गुरुः // 11 //