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________________ 264 ] - अपने अन्तर के मोहरूपी विष का जिसने वमन कर दिया है और वहीं मनोहर शान्तरस की स्थिति बनी हुई है। ऐसे पापरूप अन्धकार से रहित अर्थात् तेजोमय सिद्धान्तनीति को धारण करनेवाले गुरुदेव की जय हो // 11 // न्यायारामसुधाकुल्याः कुनीतिविपिनप्लुषः। . . देशनाः क्लेशनाशाय सद्गुरोर्गुणशालिनः // 12 // . जिन गुणशाली गुरुदेव की देशना न्यायरूपी उद्यान के लिये अमृत की नहर के समान तथा कुनीतिरूपी विपिन को जला देने वाली है वे हमारे क्लेशों का नाश करें // 12 // ब्रह्माण्डभाण्डे तेजोऽग्नि-तप्ते यस्य यशःपयः। उत्फेनायितमेतस्य बुबुदास्तारका बभुः // 13 / / तेजोमय अग्नि से तपे हुए ब्रह्माण्ड-पात्र में जिनका यशरूपी दूध उफन गया और उसी के जो बबूले बने वे ही प्राकाश में तारकों के रूप में जगमगाने लगे अर्थात् वें गुरुदेव नक्षत्रमाला के समान सर्वत्र भासित हैं // 13 // कर्तुं कः शुक्नुयाद् यस्योकेशवंशस्य वर्णनम् / समुद्रवदमुद्रश्रीरगाधः श्रूयते च यः॥१४॥ जो 'समुद्र के समान अनन्तश्री हैं और अगाध हैं; अर्थात् जिनके गुणों की गणना नहीं की जा सकती, ऐसी जिनकी प्रसिद्धि है उनके ऊकेश (ोश) वंश का वर्णन कौन कर सकता है ? // 14 // योऽतिस्वच्छस्य गच्छस्य महापदमशिश्रियत्। प्रदृष्टशुभसन्तान-प्रथमानमहोभरः // 15 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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