________________ [ 265 सौभाग्यवश उत्तम शिष्यों के विस्तृत तेजोभार से युक्त होने के कारण जो गुरुदेव अतिस्वच्छ गच्छ के महान् पद पर विराजमान हैं अर्थात् तपागच्छ के अधिपति हैं / / 15 // लक्ष्यन्ते कुशलोदर्का यस्य स्वान्तमनोरथाः। गिरामपीह सम्पर्कास्तर्का एंव न साक्षिरणः // 16 // वाणी से सम्पर्क रखनेवाले तर्क ही साक्षी नहीं हैं कि-वे गुरुदेव हमारा कल्याण करते हैं अपितु उनकी हार्दिक-भावना भी कुशलपरिणाम देनेवाली है / / 16 // .. यत्सुदर्शनभृत्ख्याते - रसेनानुमिमीमहे / कलिपाथोधिमग्नाया उद्दिधीर्षा भुवो ध्रुवम् // 17 // जिनके उत्तम दर्शन-सम्यग्दर्शन स्याद्वाद की मृत्तिका से युक्त खात-सरोवर में भरे हुए जल से ही हम अनुमान करते हैं कि निश्चय ही उनकी इच्छा कलिरूपी समुद्र में डूबी हुई पृथ्वी का उद्धार करने की है // 17 // रत्नानीव पयोराशेवियतस्तारका इव / गणनायां समायान्ति गुणा यस्य न कहिचित् // 18 // - जिस प्रकार समुद्र के रत्नों की और आकाश के तारकों की गणना नहीं की जा सकती उसी प्रकार उन गुरुदेव के गुणों की गणना भी कभी नहीं की जा सकती // 18 // हृदयं ज्ञानगम्भीरं वपुर्लावण्य-पावनम् / गजितेनोजिता वाणी यस्य किं विस्मयाय न // 16 // जिनका हृदय ज्ञान की अधिकता से गम्भीर बना हुआ है, शरीर