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________________ 262 ] समान हैं और जो छत्तीस गुणरूप होते हुए भी छत्तीस. गुणों से युक्त . हैं ऐसे गुरु की मैं शरण प्राप्त करता हूँ॥२॥ .. सूत्रारामसुधावृष्टिर्देशना यस्य पेशला। उत्सूत्राम्भोधिकल्पान्तवातोमि तं गुरुं श्रये // 3 // . सूत्ररूपी उद्यान को हराभरा रखने के लिये जिसकी देशना अमृतवृष्टि के समान है तथा उत्सूत्ररूपी समुद्र में हलचल लाने के लिये जो प्रलयकालीन वायुलहरी के समान हैं उन गुरुदेव की मैं शरण प्राप्त करता हूँ // 3 // उत्सूत्राब्धिगतां लङ्कां मिथ्यामतिमुवोष यः। गुरुर्दाशरथिः क्लेश-पाशच्छेदाय सोऽस्तु वः // 4 // उत्सूत्ररूपी समुद्र में स्थित मिथ्या-मतिरूप लङ्का पर आक्रमण कर दिया है ऐसे दाशरथि–रामरूप वे गुरुदेव हमारे क्लेशपाश का छेदन करनेवाले हों // 4 // क्षारं मत्वा वचश्चित्रमुत्सूत्राम्भोनिधेः पयः / उपेक्षते स्म यः साक्षात्स एव गुरुरस्ति नः // 5 // जो उत्सूत्ररूप समुद्र के वचनों के युक्तिरूप पानी को खारा मान कर उनकी उपेक्षा करते हैं वे हमारे साक्षात् गुरुदेव हैं / / 5 // नोजितं गजितं मेने वल्गु वा वीचिवल्गनम् / उत्सूत्राम्भोनिधेर्येन स गुरुर्जगतोऽधिकः // 6 // . जिनकी उपस्थिति रहने के कारण उत्सूत्रानुयायो-रूपी मेघ ऊँचे स्वर से गरज नहीं पाये और न उत्सूत्ररूपी समुद्र में ही कोई विशाल ज्वार पा सका वे ही गुरु जगत् में सबसे महान् हैं // 6 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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