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________________ [ 271 वि० सं० 1651 में पूज्यपाद जगद्गुरु श्रीहीरसागरसूरीश्वरजी ने चातुर्मास-वास किया था और यहीं पू० उपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज के गुरुमहाराज श्रीविजयप्रभ सूरीश्वरजी ने भी अपने शिष्य-प्रशिष्यों के साथ चातुर्मास किया था और उसी समय यह विज्ञप्ति प्रेषित की गई थी। (2) चैत्यत्रयी-परिचय-इस दीवबन्दर में 'नवलखा पार्श्वनाथ' का जिन मन्दिर प्रधान है तथा पास ही श्रीनेमिनाथजी और श्रीशान्तिनाथजी के दो मन्दिर हैं। सम्भवतः इन्हीं तीन मन्दिरों को लक्ष्य करके उपाध्यायजी महाराज ने चैत्यत्रयी का (द्वितीय भाग के १९वें पद्य में) वर्णन किया है। यहाँ मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ जी की प्रतिमाजी भव्य तथा रमणीय है। श्रीनवलखा पाश्र्वनाथजी को प्राचीन काल में नौ लाख का हार तथा नौ लाख का ही मुकूट धारण कराया जाता था, इसी किंवदन्ती के आधार पर उक्त नाम प्रसिद्ध हुआ है। (3) तस्मात् सिद्धपुरात्-(पद्य सं० 20), इस पद्य में 'तस्मात्' पद से सिद्धपुर का पूर्ववर्ती पद्यों में वर्णन किया हो, ऐसा आभास होता है, किन्तु उपलब्ध पूर्वपद्यों में ऐसा कोई वर्णन किया हो, यह प्रतीत नहीं होता / अतः या तो वे पद्य नष्ट हो गए हों अथवा तात्कालिक-पद्य रचना करने के कारण प्रसङ्ग छूट गया होगा ऐसा अनुमान किया जा सकता है। यह 'सिद्धपुर' ऊँझा के पास गुजरात में है। (4) नयादिविजयः शिशुः--यह प्रसिद्ध है कि पूज्य उपाध्यायजी के गरुदेव उपाध्याय श्री नयविजयजी अथवा विनयविजयजी महाराज थे और उन्हीं के साथ वे 12 वर्ष तक वाराणसी में अध्ययनार्थ रहे थे। अतः 'उनका शिष्य' यह भाव व्यक्त करने के लिये उपयुक्त पंक्ति लिखी गई है। किन्तु अर्थ की दृष्टि से यह पंक्ति ठीक नहीं लगती। अतः प्रथम तो यही कारण प्रतीत होता है कि शीघ्र रचनावश यह भूल रह गई हो अथवा यहाँ 'नयादेविजयः शिशुः' ऐसा पाठ रहा होगा। इससे 'नयादेः=गुरोः शिशुः विजयः यशोविजयः' ऐसा अर्थ हो जाता है।
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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