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________________ [46 इसी वर्गीकरण में आये प्रत्येक वर्ग का भी उपवर्ग-विचार किया जाए तो उससे भी कई प्रकार हमारे समक्ष प्राजाते हैं। इसी प्रकार रचना-शिल्प की दृष्टि से १–विषय, २-भाषा, ३-छन्द, ४अलङ्कार-शब्दगत, अर्थगत एवं उभयगत, ५-वर्णन शैली, ६प्रतिपादन और ७-विशेष / इन सात आधारों पर विवेचन किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त इन स्तोत्रों में कई स्तोत्र ऐसे महत्त्वपूर्ण हैं जिन पर एक-दो नहीं, अपित कई टीकाएँ अनेक प्राचार्यों ने निर्मित की हैं। इतना ही नहीं इन स्तोत्रों के अनुकरण पर भी जैनाचार्यों-कवियों ने बड़ा बल दिया है और यही कारण है कि अनेक स्तोत्रों के अनुकरण भी हुए हैं। जैन स्तोत्रकार वाग्देवी के सम्बन्ध में यह उक्ति प्रसिद्ध है कि 'यमैवेष वृणुते तं तमुग्रं कृणोति'-अर्थात् इसकी जिसपर कृपा हो जाती है, उसको सब प्रकार से उग्र-समर्थ बना देती है / इसके अनुसार वाग्देवी की अनुकम्पा से अभिषिक्त अनेक प्राचार्यों, मुनिराज तथा गृहस्थ कविवरों ने अपनेअपने इष्टदेव की कृपा-प्राप्ति के लिए स्तोत्रों की रचनाएँ की हैं। सामूहिक पर्यालोचन से यह सर्वथा निश्चित हो जाता है कि जैनस्तोत्रकारों में जैनाचार्य एवं साधु-महाराजों का योगदान ही महत्त्वपूर्ण है। इसका कारण भी स्पष्ट है कि जैनमुनियों ने अपने इष्टदेव के गुणानवादों का गान करने में अपनी निर्मल भावना, उदात्त आदर्श तथा वैराग्यराग-रसिकता का परिचय स्तोत्रों के द्वारा ही अधिक व्यक्त किया है। मुनियों में भी बालदीक्षित मुनियों की परम्परा बहुत विकसित रही है। जैनशासन के धर्मधुरन्धर प्राचार्यों में अधिकांश बालदीक्षित ही थे। अतः पूर्वभव के शुभसंस्कार, माता-पिता की धार्मिकवृत्ति, सद्गुण के निकट निरन्तर चरित्र का पालन एवं शास्त्राभ्यास जैसी प्रवृत्ति के कारण उनका मन सांसारिक तृष्णाओं से पूर्ण
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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