________________ 50 ] रूपेण निलिप्त रहकर ज्ञान साधना करता है, फलतः उनकी प्रतिभा जब फलवती होने लगती है, तो भक्ति-काव्य फूट पड़ते हैं। नित्य, नैमित्तिक क्रियाकाण्ड तथा ज्ञानाभ्यास में ही निरन्तर व्यस्त रहनेवाले त्यागी जैनमुनिवरों की ज्ञान, दर्शन तथा चरित्रमूलक प्रवृत्तियों का प्रभावशाली परिचय यदि कहीं मिलता है, तो वह स्तोत्र-साहित्य में सबसे अधिक मिलता है। स्तोत्रों में भक्ति की प्रधानता के अतिरिक्त तत्त्वों की प्रधानता को भी पर्याप्त पोषण मिला है जिससे ललित स्तोत्र एवं दार्शनिक-स्तोत्र दोनों की परम्परा पूर्ण विकसित 'सिद्धसेन दिवाकर' को जैन स्तोत्रकारों में प्रथम स्थान प्राप्त है। इनका समय जैन परम्परा के अनुसार विक्रम की प्रथम शती माना जाता है। श्रीसुखलाल जी जैन ने सिद्धसेन दिवाकर को 'प्राद्य जैन तार्किक, आद्य जैन कवि, 'प्राद्य जैन स्तुतिकार, प्राद्य जैन वादी, आद्य जैन दार्शनिक तथा प्राद्य सर्वदर्शन संग्राहक' माना है।' __ श्री सिद्धसेन दिवाकर ने 1. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका, 2. कल्याणमन्दिर स्तोत्र तथा 3. शक्रस्तव की रचना की है। इनमें बत्तीसबत्तीस पद्यों की बत्तीस स्तुतियाँ बहत ही महत्त्वपूर्ण तथा अनेक दार्शनिक तत्त्वों से संवलित हैं / कल्याण-मन्दिर स्तोत्र बहुत ही प्रसिद्ध स्तोत्र काव्य है तथा इसकी पादपूर्ति के रूप में भी अनेक स्तोत्र-काव्यों का निर्माण हुआ है। इस पर भिन्न-भिन्न आचार्यों ने 16 से भी अधिक टीका एवं वृत्तियां लिखी हैं तथा देश-विदेश की अनेक भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ है। स्वामी समन्तभद्र-जिन्हें 'कवि-गमक-वादि-वाग्मित्व गुणालं १-द्रष्टव्य-नवमी द्वात्रिंशिका, भारतीय विद्या भवन, बम्बई प्रकाशन, 1645 ई०