________________ [ 51 कृत' विशेषण से सम्बोधित किया जाता रहा है, ने जनस्तोत्र-साहित्य में अनेकविध नवीन परम्पराओं को आविर्भूत किया है। 1. स्वयम्भूस्तोत्र, 2. देवागम-स्तोत्र, 3. जिनशतक तथा 4. वीर जिनस्तोत्र ये चार इनके प्रमुख स्तोत्र हैं। इनमें प्रथम स्तोत्र 146 पद्यों में है जिसमें 13 प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुअा है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति से अलंकृत इस स्तोत्र में अनेक दार्शनिक तत्त्वों की चर्चा है। द्वितीय स्तोत्र का अपरनाम 'स्तूतिविद्या' भी है। 116 पद्यों में भरतक्षेत्र के वर्तमान 24 तीर्थकरों की स्तुति चित्रकाव्य के रूप में की गई है अतः जैनपरम्परा में चित्रकाव्यात्मक स्तोत्रों को प्रारम्भ करने का श्रेय स्वामी समन्तभद्र को ही है। अनेकविध चित्रबन्धों के साथ ही यमक का भी इसमें पर्याप्त प्रयोग है / यद्यपि इनके चित्रबन्ध मुरज, अर्धभ्रम, गतप्रत्यागतार्ध, चतुररचक्र, अनुलोम प्रतिलोम, सर्वतोभद्र, गतप्रत्यागतपाद और षडरचक्र तक ही सीमित हैं, तथापि 'अलंकार-चिन्तामणि'कार श्री अजितसेनाचार्य ने इनके कुछ अन्य रूप भी प्रस्तुत किये हैं और उत्तरकाल के स्तुतिकारों के लिए एक नया मार्ग प्रशस्त किया गया। तृतीय स्तोत्र का अपरनाम 'युक्त्यनुशासन' भी है / 64 पद्यों में श्रीमहावीर की स्तुति करते हुए प्राचार्य ने वैशेषिक, बौद्ध, चार्वाक प्रादि अन्य दर्शनों की समालोचना भी की है। सर्वोदय-तीर्थ, अनेकान्तवाद का भी इसमें वर्णन है। चतुर्थ स्तोत्र का दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा' है। 115 पद्यों में जैनतीर्थंकरों की प्राप्तता सिद्ध करना और एकान्तवाद का निरसन इसका प्रमुख विषय है। विक्रम की छठी शती में आचार्य देवनन्दि ने 'सिद्धिप्रिय स्तोत्र' १-कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि / यशः सामन्तभद्रीयं, मूर्ध्नि चूडामणीयते / / 44 // -आदिपुराण, जिनसेनाचार्य /