________________ 32] करते थे। अतः इन रचनाओं का भाषानुवाद किये बिना रसं प्राप्त करना सर्वसाधारण के लिये कठिन ही था। यही कारण है कि अनुवाद कार्य को आवश्यक माना गया। ___ इन कृतियों में से कुछ कृतियों तथा अन्य कृतियों के कुछ पद्यों का प्राथमिक गुजराती अनुवाद मैंने किया था। जो कृतियाँ दार्शनिक तथा तर्कन्याय से अधिक पुष्ट थीं उनके अनुवाद का कार्य एकान्त तथा पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता था, तथा कुछ कृतियों एवं कुछ पद्यों के अनुवाद का कार्य मेरे लिये भी दुःशक्य था। इतना होने पर भी 'जैसे तैसे समय निकालकर, परिश्रमपूर्वक आवश्यकतानुसार अन्य विद्वानों का सहयोग प्राप्त करके भी उपाध्याय महाराज की कृतियों के अनुवाद की यह तुच्छ सेवा मुझे ही करनी चाहिये' ऐसे मेरे मानसिक हठाग्रह के कारण वर्षों तक यह कार्य किसी अन्य को मैंने नहीं दिया। अन्त में मुझे लगा कि मैं एक से अधिक घोड़ों पर सवार हूँ। कार्य का भार बढ़ता ही जा रहा है तथा सार्थक अथवा निरर्थक दिनोंदिन बढ़ती उलझनें भी मेरा समय खा रही हैं, एक के बाद एक आने वाली दीर्घकालीन बीमारियाँ, अन्य प्रकाशनों के चल रहे कार्य, कला के क्षेत्र में हो रही प्रवृत्तियाँ तथा स्वेच्छा से अथवा अनिच्छा से सामाजिक कार्यों में होनेवाली व्यस्तता, आदि के कारण मुझे अनुभव हुआ कि यह कार्य अब मुझ से होना सम्भव नहीं है। अतः यह कार्य मैंने मेरे विद्वान् मित्र पण्डितों को सौंप दिया, जिसका उल्लेख प्रकाशकीय निवेदन में किया गया है। उन्होंने सहृदयता से पहले किये गये कार्य को परिमार्जित किया तथा 'वीरस्तव' नामक जिस कृति का अनुवाद नहीं हुआ था उसका अनुवाद भी मेरे विद्वान् सहृदयी मित्र डॉ. रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने किया। अन्त में सम्पूर्ण प्रेसकॉपी संशोधन के लिये मेरे पास भेजी। वह प्रेसकॉपी विभिन्न व्यस्तताओं के कारण