________________ 140 ] स्वद्रव्यपर्यय-गुणानुगता हि तत्ता, तद्वयक्त्य भेदमपि तादृशमेव सूते। . संसर्गभावमधिगच्छति स स्वरूपात, सा वा स्वतः स्फुरति तत्पुनरन्यदेतत् // 26 // प्रत्यभिज्ञा में परिस्फुरित होने वाली तत्ता, आश्रयद्रव्य, उसके गुण और संस्थान तथा उसके गुणों के धर्मरूप पर्याय इन सभी का अनुगत धर्म है. जैसे श्याम घट की तत्ता घट, श्याम-रूप, घट का आकार. श्यामता आदि इन सभी वस्तुओं में आश्रित है। अतः वह प्रत्यभिज्ञा में अपने स्वरूपानुरूप ही अभेद को अवभासित कराती है। तत्ताश्रयरूप तद्व्यक्ति के उपर्युक्त अभेद का भान किस रूप से होता है ? यह एक विचारान्तर है, वह स्वरूपतः अर्थात् प्रतियोगी से अविशेषिर होकर संसर्गरूप से भासमान हो सकता है और यदि अभेद को तादात्म्य-रूप अतिरिक्त सम्बन्ध माना जाए तो उस रूप से भी उसका भान स्वीकार किया जा सकता है। इसी प्रकार यदि अभेद को तदव्यक्तिरूप माना जाए एवं तद्व्यक्ति को सामान्यविशेषात्मक अथवा मिधर्मात्मक माना जाए तो उस रूप से भी उसका भान मानने में कोई बाधा नहीं है // 26 // पर्यायतो युगपदप्युपलब्धभेदं, कि न क्रमेऽपि हि तथेति विचारशाली। स्याद्वादमेव भवतः श्रयते न भेदा भेदक्रमेण किमु न स्फुटयुक्तियुक्तम् // 27 // . हे भगवन् ! इस प्रसङ्ग में जो व्यक्ति इस प्रकार विचार करने को प्रवृत्त होता है कि 'जब वही वस्तु सहभावी विभिन्न पर्यायों की दृष्टि से उसी से भिन्न होकर प्रतिष्ठित होती है तब वह क्रमभावी