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________________ 70. 1 हे स्वामिन् ! प्रभा से समर्थ राहु के सामने आने पर चन्द्रमा फिर सुखी नहीं हुआ, इसलिये यहाँ राहु के ग्रास का उल्लास मुझ पर ही आ गिरा, यह जानकर सूर्य ने चित्त में सुखकारक 'भामण्डल' के बहाने से आपके पराक्रम को महत्त्वपूर्ण मानकर आपके मस्तक के पीछे आश्रय नहीं लिया है क्या? // 39 // स्फुरत्कैवल्य-श्रीपरिणयनदिव्योत्सवमिव, त्रिलोकीलुण्टाकस्मरजयरमाताण्डवमिव। सदा धामस्थानप्रसरमिव शंसन्नतितरां, तवाकाशेऽकस्मात् स्फुरति पुरतो "दुन्दुभिरवः" / / 40 // हे जिनेश्वर ! देदीप्यमान मोक्षलक्ष्मी के विवाह के दिव्योत्सव की तरह, तीनों लोकों को लूटनेवाले कामदेव की जयलक्ष्मी के ताण्डवनृत्य की तरह सदा तेजोमय शक्ति के वेग के समान कहता हुआ 'दुन्दुभिशब्द' आपके सामने आकाश में सहसा अत्यन्त स्फुरित हो रहा है॥४०॥ परं चिह्न विश्वत्रितय-जय-दिव्यव्यवसितेः कृतव्यापत्तापत्रयविलय-सौभाग्य-निलयः। घृतं हस्तैः शस्तै स्त्रिदशपतिभिः प्रेमतरलैभवन्मौलौ "छत्रत्रय"मतितरां भाति भगवन् ! // 41 // हे भगवन् ! तीनों लोकों की विजय के दिव्य व्यवसाय का परमप्रतीक, विश्वव्यापी, तीनों तापों का नाश करनेवाला,. सौभाग्य का प्रागार और प्रेमा देवेन्द्र के सुन्दर हाथों से आपके मस्तक पर लगाया हुआ 'छत्र-त्रय' तीन छत्रों का समूह अत्यन्त शोभित हो रहा है // 41 //
SR No.004396
Book TitleStotravali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharati Jain Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages384
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P055
File Size20 MB
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