________________ तात्र [67 को अनुपयोगी बतलाया है / 52 और ५४वें पद्यों में क्रमशः श्लेषपुष्ट व्यतिरेक एवं विरोधाभास अलङ्कार व्यक्त हैं तथा १०३वाँ 'सर्पत्कन्दपसर्प' इत्यादि पद्य सूर्यशतक के पद्यों का स्मरण कराता है। ___ इस स्तोत्र की इस प्रकार की मञ्जुलता से आकृष्ट होकर ही श्री विजयधर्मधुरन्धर सूरि (श्रीधुरन्धरविजयजी) ने अनुपलब्ध 37 पद्यों का निर्माण कर स्तोत्र को पूर्ण किया है तथा इस पर संस्कृतभाषा विवरण और गुजराती अनुवाद करके 'जैनसाहित्य-वर्धक सभा' द्वारा 'श्रीगोडीपार्श्वनाथस्तोत्रम्' नाम से वि० सं० 2018 में प्रकाशित किया है। जैनस्तोत्रसन्दोह (भा० 1. पृ० 363-406) में भी यह स्तोत्र छपा है। (7) श्रीशङ्खश्वरपार्श्वनाथस्तोत्र जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि-'शङ्खश्वर-पार्श्वनाथ' के प्रति श्रीउपाध्यायजी की अनन्यभक्ति एवं अपार श्रद्धा है।' तदनुसार यह स्तोत्र भी 113 पद्यों में विरचित है / यहाँ प्रथम पद्य में शङ्केश्वर प्रभु की महिमा दिखाते हुए–'गृहं महिम्नां महसां निधानं' आदि कहा गया है। आगे कुछ पद्यों में 'अर्थान्तरन्यास' द्वारा गुणस्तव से ही प्राणियों के जन्म की सफलता, वाणी की स्वच्छता, स्तुतिप्रवृत्ति, वाणी की दुष्ट वर्णनों से रक्षा आदि वर्णित हैं। स्तुति की महत्ता का अङ्कन करते हुए कहा गया है किकलौ जलौघे बहुपङ्कसङ्करे, गुरणवजे मज्जति सज्जनाजिते / प्रभो ! वरीवति शरीरधारिणां, तरीव निस्तारकरी तव स्तुतिः // ____ अर्थात् बहुपङ्कसङ्कर कलिसमुद्र में सज्जनों द्वारा अजित गुणों के मज्जित हो जानेपर उनको भवसागर से पार लगानेवाली आप (प्रभु) की स्तुति ही एक अपूर्व नौका है। उपर्युक्त पद्य में प्रयुक्त पदावली 'नृत्यत्पदप्रायता' का अपूर्व उदाहरण है / कैसी मञ्जुल एवं प्रासादिक रचना है ? बिना तोड़-मरोड़